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वर्णी-वणी
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जी को खबर दी कि रावण बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है, यदि उसे विद्या सिद्ध हो गई तो फिर वह अजेय हो जायगा । आज्ञा दीजिये जिससे कि हम लोग उसकी विद्या की सिद्धि में विघ्न डालें ।
रामचन्द्र जो ने कहा - "हम क्षत्रिय हैं, कोई धर्म करे और हम उसमें विघ्न डालें, यह हमारा कर्तव्य नहीं हैं ।" हनुमान ने कहा - "सीता फिर दुर्लभ हो जायँगी।" रामचन्द्रजी ने जोरदार शब्दों में उत्तर दिया - "एक सीता नहीं दशों सोताएँ दुर्लभ हो जायें, पर मैं अन्याय करने की आज्ञा नहीं दे सकता ।"
रामचन्द्र जी में इतना विवेक था, उसका कारण उनका विशुद्ध नायक सम्यग्दर्शन था ।
सीता को तीर्थ-यात्रा के बहाने कृतान्तवक्र सेनापति जङ्गल में छोड़ने गया, उसका हृदय वैसा करना चाहता था क्या ? नहीं; वह स्वामी की आज्ञा परतन्त्रता से गया था । उस समय कृतान्तवक्र को अपनी पराधीनता काफी खली थी । जब वह निर्दोष सीता को जङ्गल में छोड़ अपने अपराध की क्षमा माँग वापस आने लगता है तब सीता जी उससे कहती हैं- " सेना - पति ! मेरा एक सन्देश उनसे कह देना । वह यह कि जिस प्रकार लोकापवाद के भय से आपने मुझे त्यागा, इस प्रकार लोकापवाद के भय से धर्म को न छोड़ देना ।"
उस निराश्रित अपमानित दशा में भी उन्हें इतना विवेक बना रहा। इसका कारण क्या था ? उनका सम्यग्दर्शन | आजकल की स्त्री होती तो पचास गालियाँ सुनाती और अपने समानता के अधिकार बतलाती। इतना ही नहीं, सीता जी जब नारद जी के आयोजन द्वारा व कुशल के साथ अयोध्या
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