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भगवान् महावीर
रोगवाला नेत्र से देखता तो है हो परन्तु शुक्ल वस्तु को पीला देखेगा। जैसे शंख शुक्ल वर्ण है वह शंख ही देखेगा परन्तु पीत वर्ण ही देखेगा। एवं मिथ्यादर्शन के सहवास से ज्ञान का जानना नहीं मिटेगा परन्तु विपरीतता आ जावेगी। जैसे मिथ्यादृष्टि जीव शरीर को आत्मा रूप से देखेगा अर्थात् शरीर में शरीरत्व धर्म है पर यह अज्ञानी (मिथ्याज्ञानी) जीव उसमें आत्मत्व धर्म का भान करेगा। परमार्थ से शरीर आत्मा नहीं होगा और न तोन काल में आत्मा हो सकता है, क्योंकि वह जड़ पदार्थ है उसमें चेतना नहीं परन्तु मिथ्यात्व के उदय से "शरीर में आत्मा है" यह बोध हो ही जाता है। तब इसका ज्ञान मिथ्या कहलाता है । इसका कारण बाह्य प्रमेय है। बाह्य प्रमेय वैसा नहीं जैसा इसके ज्ञान में आ रहा है। तब यह सिद्ध हुआ कि वाह्य प्रमेय की अपेक्षा से यह मिथ्या ज्ञान है। अन्तरङ्ग प्रमेय को अपेक्षा तो विषय बाधित न होने से उस काल में उसे मिथ्या नहीं कह सकते । अतएव न्याय में विकल्प सिद्ध जहाँ पर होता है वहाँ पर सत्ता या असत्ता ही साध्य होता है। अनादिकाल से यह जीव इसी चक्कर में फंसा हुआ अपने निज स्वरूप से बहिष्कृत हो रहा है। उसका कारण यही मिथ्याभाव है। क्योंकि मिथ्या दृष्टि के ज्ञान में "शरीर ही आत्मा है" ऐसा प्रतिभास हो रहा है। उस ज्ञान के अनुकूल वह अपनी प्रवृत्ति कर रहा है। जब शरीर को आत्मा मान लिया तब जो शरीर के उत्पादक हैं उन्हें अपने माता पिता
और जो शरीर से उत्पन्न हैं उनमें अपने पुत्र पुत्री तथा जो शरीर से रमण करनेवाली है उसे स्त्री मानने लगता है। तथा जो शरीर के पोषक धनादिक हैं उन्हें अपनी सम्पत्ति मानने लगता है, उसी में राग परणति कर उसीके सञ्चय करने का
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