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________________ वर्णी-वाणी २८४ है। ज्ञान में जो भासमान हो रहा है वह ज्ञान का ही परिणमन हो रहा है।" साधना के पथ पर पश्चात् श्री वीर प्रभु ने संसार से विरक्त हो दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण को । सभी प्रकार के वाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर दिया। बालों को घासफूस की तरह निर्ममता के साथ उखाड़ फेंका। ग्रीष्म की लोल-लपटें, मूसलाधार वर्षा और शिशिर का झंझावात सहन कर प्रकृति पर विजय प्राप्त की, और अनेक उपसर्गों को जीतकर अपने आप पर विजय प्राप्त की। उन्होंने बताया--"वास्तव में यह परिग्रह नहीं, मूर्छा के निमित्त होने से इन्हें उपचार से परिग्रह कहते हैं। क्योंकि धन-धान्य आदि पदार्थ पर वस्तु हैं। कभी आत्मा के साथ इनका तादात्म्य हो सकता है, इन्हें अपना मानता है, यह मानना परिग्रह है। उसमें ये निमित पड़ते हैं इससे इन्हें निमित्त कारण की अपेक्षा परिग्रह कहा है, परमार्थ से तो क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद, और मिथ्यात्व ये आत्मा के चतुदेश अन्तरङ्ग परिग्रह हैं। इनमें मिथ्यात्व भाव तो आत्मा के सम्यग्दर्शन गुण का विकार है जो दर्शन मोहनी कर्म के विपाक से होता । है शेष जो क्रोधादि तेरह प्रकार के भाव हैं वे भाव चारित्र मोहनीय कर्म के विपाक से होते हैं। इन भावों के होने से आ.मा में अनात्मीय पदार्थ में आत्मीय बुद्धि होती है अर्थात् जब आत्मा में मिथ्यात्व भाव का उदय होता है उस काल में इसका ज्ञान विपर्यय हो जाता है। यद्यपि ज्ञान का काम जानना है वह तो विकृ नहीं होता अर्थात् जैसे कामलता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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