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________________ वर्णी-वाणी २०६ उपाय करता है। इसमें जो बाधक कारण होते हैं उनमें प्रतिकूल राग द्वेष द्वारा उनके पृथक करने की चेष्टा करता है। मूल जड़ यही मिथ्यात्व है जो शेष तेरह प्रकार के परिग्रह की रक्षा करता है। इन्हीं चतुर्दश प्रकार के परीग्रह से ही तुमको संसार की विचित्र लीला दिख रही है यदि यह न हो तो यह सभी लीला एक समय में विलीन हो जावे।" दिव्योपदेश दैगम्बरी दीक्षा को अवलम्बन कर बारह वर्ष तक घोर तपश्चरण कर केवल ज्ञान के पात्र हुए । केवल ज्ञान के बाद भगवान् ने दुखातुर संसार को दिव्योपदेश दिया___ "संसार में दो जाति के पदार्थ हैं-१ चेतन, २ अचेतन । अचेतन के पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । चार पदार्थो को छोड़कर जीव और पुद्गल यह दो पदार्थ प्रायः सब के ज्ञान में आ रहे हैं जीव नामक जो पदार्थ है वह प्रायः सभी के प्रत्यक्ष हैं, स्वानुभव गम्य है। सुख दुःख का जो प्रत्यक्ष होता है वह जिसे होता है यही आत्मा है । मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, यह प्रतीति जिसे होती है वही आत्मा है और जो रूप, रस, गन्ध और स्पर्श इन्द्रिय के द्वारा जाना जाता है वह रूपादि गुण वाला है-उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं। इन दोनों द्रव्यों की परस्पर में जो व्यवस्था होती है उसी का नाम संसार है। इसी संसार में यह जीव चतुर्गति सम्बन्धी दुखों को भोगता हुआ काल व्यतीत करता है । परमार्थ से जीव द्रव्य स्वतन्त्र है और पुद्गल स्वतन्त्र है-दोनों की परिणति भी स्वतन्त्र है। परन्तु यह जीव अज्ञान बस अनादि काल से पुद्गल को अपना मान अनन्त संसार का पात्र हो रहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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