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वर्णीवाणी पर लोकमत
भारतीय संस्कृति को धारा श्रमण संस्कृति के रूप में भी वही है जो अन्यापेक्षया अधिक उदात्त पुनीत और व्यापक ध्येय को लिए हुए हैं। भिन्न-भिन्न समय में जैन श्रमणों ने अपनी गहनतम आध्यात्मिक साधना द्वारा, बिना किसी साम्प्रदायिक भेद भावों के, भारतीय जन-जीवन के धरातल को ऊँचा उठाने का अनुकरणीय प्रयास कर, मानव संस्कृति को ही एक प्रकार से प्रोत्साहित किया है। भारत में क्या विश्व में यही एक ऐसी संस्कृति है जो जातिवाद. संस्कृति या धर्म के नाम पर अहंकार
और मानव कृत उच्चत्वनीचत्व की दूषित परंपरा को प्रश्रय नहीं देती, वह तो प्रात्मशोधन का अधिकार प्राणी मात्र को देती है । भावी भारत का बुद्धिजीवी मानव समाज इसी के बल पर अपना सुन्दर निर्माण कर सकता है। इसमें वह सत्य है जो त्रिकालाबाधित है। परन्तु अतीव दुःख और परिताप की बात तो यह है कि जैनों ने अपनी संस्कृति को समुचित रूप से प्रास्मसात् न किया। वे वैदिकी सभ्यता के प्रभाव में श्राकर, जैन संस्कृति के विरुद्ध आचरण करने लगे, अाश्चर्य यह कि कुछ पोथियों का उन्हें सहारा भी मिल गया। प्रस्तुत वर्णीवाणी को मैंने मनोयोग से पढ़ा, मुझे इसने बहुत प्रभावित भी किया। इसका कारण मुझे तो यही प्रतीत होता है कि इसमें केवल श्राध्यात्मिक विषय का ही समावेरा किया गया है परन्तु यह आध्यात्मिकता समाज विरुद्ध नहीं है । सदाचार मय जीवन यापन के लिये ऐसे ग्रन्थों की आवश्यकता स्वतन्त्र भारत के लिए अधिक है। अगली दुनिया के लिये इसमें मार्ग है, प्रेरणा है, चेतना है और स्फूर्ति है। वर्णोजी ने इस युग में आध्यात्मिक
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