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भगवान् महावीर
संसार के कारण विषय सेवन में नहीं पड़ना चाहता।" पिता ने कहा-"अभी तुम्हारी युवावस्था है अतः दैगम्बरी दीक्षा अभी तुम्हारे योग्य नहीं। अभी तो सांसारिक कार्य करो पश्चात् श्री
आदिनाथ स्वामी की तरह विरक्त हो जाना।" श्री वीर प्रभु ने उतर दिया-"पहले से कीचड़ लगाया जावे, पश्चात् जल से उसे धोया जावे यह मैं उचित नहीं समझता । विषयों से कभी
आत्म तृप्ति नहीं होती। यह विषय तो खाज खुजाने के सदृश हैं । प्रथम तो यह सिद्धान्त है कि पर पदार्थ का परिण मन पर में हो रहा है, हमारा परिणमन हम में हो रहा है। उसे हम अपनी इच्छा के अनुकूल परिणमन नहीं करा सकते । इसलिये उससे सम्बन्ध करना योग्य नहीं है। जो पदार्थ हमसे पृथक् हैं उन्हें अपनाना महान् अन्याय है। अतः जो पर की कन्या हमसे पृथक है उसे मैं अपना बनाऊँ यह उचित नहीं । प्रथम तो हमारा आपका भ कोई सम्बन्ध नहीं। आपकी जो आत्मा है वह भिन्न है, मेरी आत्मा भिन्न है। इसमें यही प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आप कहते हैं विवाह करो, मैं कहता हूँ वह सर्वथा अनुचित है। यह विरुद्ध परिणमन ही हमारे और आपके बीच महान् अन्तर दिखा रहा है। अतः विवाह की इस कथा को त्यागो। आत्म कल्याण के इच्छुक मनुष्य को चाहिये कि वह अपना जीवन ब्रह्मचर्य पूर्वक व्यतीत करे । और उस जीवन का सदुपयोग ज्ञानाभ्यास में करे । क्योंकि उस ब्रह्मचर्य व्रत के पालने से हमारी आत्मा रागपरिणति--जो अनन्त संसार में रुलाती है; उससे बच जाती है। यह तो अपनो दया हुई और उस राग परिणति से जो अन्य स्त्री के साथ सहवास होता है वह भी जब हमारी राग परिणति में फँस जाती है तब उस स्त्री का जीव भी अपने को इस राग द्वारा अनन्त संसार में
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