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________________ वर्णी-वाणी २८२ फँसा जाता है इसलिए दूसरे के फँसाने में भी हम ही कारण होते हैं । इस प्रकार दो जीव इस राग व्याल के लक्ष्य हो जाते हैं। दोनों का घात हो जाता है अतः जिसने इस ब्रह्मचर्य व्रत को पाला उसने दो जीवों को संसार बन्धन से बचा लिया और यदि आदर्श उपस्थित किया तो अनेकों को बचा लिया।" वैराग्य की ओर कुमार महावीर को अवस्था ३० वर्ष की थी। जब मातापिता ने पुनः पुनः बिवाह का आग्रह किया, राज्यभार ग्रहण करने का अभिप्राय व्यक्त किया तब उन्होंने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया--"यह संसार बन्धन का मुख्य कारण है, इसको मैं अत्यन्त हेय समझता हूँ। जब मैंने इसे हेय माना तब यह राज्य सम्पदा भी मेरे लिये किस काम की ? अब मैं दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करूँगा। जब मैं राग को ही हेय समझता हूँ तब ये जो राग के कारण हैं वे पदार्थ तो सदा हेय ही है । वास्तव में अन्य पदार्थ न तो हेय हैं और न उपादेय हैं क्योंकि वे तो पर वस्तु हैं न वह हमारे हित कर्ता हैं, न वह हमारे अहित कर्ता ही हैं। हमारो रागद्वेष परिणति जो है उसमें हित कर्ता तथा अहितकर्ता प्रतीत होते हैं। वास्तव में हमारे साथ जो अनादि काल से रागद्वेष का सम्बन्ध हो रहा है वही दुखदाई है। आत्मा का स्वभाव तो ज्ञाता दृष्टा है, देखना-जानना है, उसमें जो रागद्वेष मोह की कलुषता है वही संसार की जननी है। आज हमारे यह निश्चय सफल हुआ कि इन पर पदार्थों के निमित्त से रागद्वेष होता है। उस रागद्वेष के निमित्त को ही त्यागना चाहिए। निश्चय सफल हुआ इसका अर्थ यह है कि सम्यगदर्शन के सहकार से ज्ञान तो सम्यक् था हो और वाह्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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