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वर्णो-वाणी
बड़ते हुए दुःखातुर संसार को त्राण देने के लिए विद्याभ्यास और अनेक कलाओं के पारगामी एवं कुशल संरक्षक के रूप में दुनिया के सामने आये । अवस्था के साथ उनके दया दाक्षियादि गुण भी युवावस्था को प्राप्त हो रहे थे । परन्तु अपनी सुन्दरता, युवावस्था, विद्या और कलाओं का उन्हें कभी अभि मान नहीं हुआ
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श्री वर प्रभु ने बाल्यावस्था से लेकर ३० वर्ष घर ही में बिताये और उन वर्षों को अविरत अवस्था ही में व्यय किया । श्री वीर प्रभु बाल ब्रह्मचारी थे अतः सबसे कठिन व्रत जो ब्रह्मचर्य है उन्होंने अविरतावस्था में ही पालन किया। क्योंकि संसार का मूल कारण स्त्री विषयक राग ही है। इस राग पर विजय पाना उत्कृष्ट आत्मा का ही काम है । वास्तव में वीर प्रभु ने इस व्रत का पालन कर संसार को दिखा दिया - "यदि कल्याण करना इष्ट है तब इस व्रत को पालो । इस व्रत को पालने से शेष इन्द्रियों के विषयों में स्वयमेव अनुराग कम हो जाता है ।"
आदर्श ब्रह्मचारी
वोर प्रभु ने अपने बाल - जीवन से हमको यह शिक्षा दी कि- "यदि अपना कल्याण चाहते हो तो अपनी आत्मा को पञ्चेन्द्रियों के विषयों से और ज्ञान परिणति को पर पदार्थों में उपयोग से रक्षित रखो ।" बाल्यावस्था से ही वीर प्रभु संसार के विषयों से विरक्त थे क्योंकि सबसे प्रबल संसार में स्त्री विषयकराग है अतः उस राग के बस होकर यह आत्मा अन्धा हो जाता है । जब पुंवेद का उदय होता है तब यह जीव स्त्री सेवन की इच्छा करता है। प्रभु ने अपने पिता से कह दिया - " मैं इस
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