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स्थितिकरण अङ्ग दिन खर्च में निर्वाह होता है तो उसमें से आठ आने अपने जो गरीब पड़ोसी हैं उनके लिए व्यय करना चाहिये । केवल वाचनिक सहानुभूति से स्थितिकरण नहीं होता और कहीं वाचनिक
और कहीं कायिक सहानुभूति भी स्थिति करने में सहायक हो सकती है। परन्तु सर्वत्र नहीं । यथा योग्य सहानुभूति से कार्य चलेगा। महापुरुष वही है जो समय के अनुरूप कार्य करे। आगम में तो यहाँ तक लिखा है--
"जानन्नप्यात्मनस्तत्त्व विविक्तं भावयन्नपि । पूर्व विभ्रम संस्काराद् भ्रान्ति भूयोऽपि गच्छति ।।"
अर्थात् अन्तरात्मा अपने आत्म तत्व के यथार्थस्वरूप को जानता हुआ भो तथा शरीरादि पर पदार्थों से अपने को भिन्न अनुभव करता हुआ भी पूर्व वहिरात्मावस्था में "शरीर आत्मा है" इस संस्कार के द्वारा फिर भी भ्रान्ति को प्राप्त हो जाता है। अनादि काल से अनात्मीय पदार्थों में आत्मीय बुद्धि थी दैव बल से जब इसे अन्तरात्मा का बोध हो गया पश्चात् वही वासना जो अनादि काल से थी उसके संस्कार बल से फिर भी भ्रान्ति को प्राप्त हो जाता है अतः उसको फिर भी इस ओर लगाने का प्रयत्न करना उचित है । प्राचार्य उसे उपदेश देते हैं
"अचेतन मिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं ततः । क रुष्यामि क तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यहम् ॥" जिस काल में यह अपने पद से विचलित हो जावे उस समय अन्तरात्मा यह विचार करता है कि "यह दृश्यमान पदार्थ इन्द्रिय गोचर हो रहा है वह अचेतन है और जो चेतन पदार्थ है वह दृश्यमान नहीं है अर्थात् अदृश्य है । मैं किस में रोष करूँ और किसमें सन्तोष करूँ। मध्यस्थ होना ही मुझे
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