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________________ २७४ वर्णी-वाणी श्रेयस्कर है ।" जो रोष तोष को जाननेवाला है वह तो दर्शन का विषय ही नहीं और जो दर्शन का विषय है वह रोष तोष को जानता नहीं अतः रोष तोष करना व्यर्थ है। जब बड़े बड़े आचार्य महाराजों ने विचलित आत्माओं को अपने दिव्योपदेशों द्वारा मोक्ष-मार्ग में स्थित कर उनका उपकार किया तब हम लोगों को भी उचित है कि वर्तमान में अपने सजातीय संज्ञी मनुष्यों को सुमार्ग में लाने का प्रयत्न करना चाहिये । इस अङ्ग की व्यापकता संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मात्र तक जानना चाहिये । केवल जो हमारी जाति के हैं या जो धर्म के पालने वाले हैं, वहीं तक इसकी सीमा नहीं । जो कोई भी अन्याय मार्ग में जाता हो उसे उस मार्ग से रोक कर आत्म-धर्म पर लाना चाहिये, क्योंकि धर्म किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, जो भी आत्मा विभाव परिणामों को त्याग दे और आत्मा का जो निरपेक्ष स्वाभाविक परिणमन है उसे जान कर तद्रूप हो जावे वही इस धर्म का पात्र है। आजकल बहुत से सङ्कीण हृदय इस व्यापक धर्म को व्याप्य बनाने की चेष्टा करते हैं, यद्यपि उनके प्रयत्न से ऐसा हो नहीं सकता परन्तु अल्पज्ञ लोग उसे उन्हीं का धर्म मानने लगते हैं, अतः इस आत्म धर्म को जो व्यापक है, हमारा धर्म है, ऐसा रूप नहीं देना चाहिये । क्योंकि यह तो प्राणीमात्र का धर्म है तब प्रत्येक आत्मा इस धर्म का अधिकारी है। एक आँखों देखी_ मैं जब बनारस में अध्ययन करता था तब भेलूपुरा में रहता था । वहाँ पर जो मन्दिर का माली था उसे भगत-भगत के नाम से पुकारते थे। वह जाति का कोरी था । परन्तु हृदय का बहुत ही स्वच्छ था, दया तो उसके हृदय में गङ्गा के प्रवाह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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