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वर्णी-वाणी
२७२ ज्ञानियों से यह सुना कि रावण की मृत्यु सीता के निमित्त से श्री रामचन्द्रजी के द्वारा लक्ष्मण से होगी, तब एकदम दुखी हो गया और विचार करता है कि "न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी” न रहेंगे दशरथ और न रहेंगे जनक तब कहाँ से होगा सीता ? और कहाँ से होंगे रामचन्द्र ? ऐसा विचार कर दोनों को मारने का संकल्प कर लिया। यहाँ की वार्ता श्रवण नारदजी ने एक दम अयोध्या और मिथिलापुरी में जाकर दोनों राजाओं को यह समाचार सुना दिया । मन्त्रियों ने दोनों को गुप्त स्थान में भेज दिया और उनके सदृश दो लाख के पुतले बनवाकर रख दिये । विभीषण दोनों का शिरच्छेद कराकर आनन्द से लङ्का जाता है और विचार करता है कि मैंने महान अनर्थ किया पश्चात् फिर ज्यों का त्यों धर्मात्मा बन जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जा आत्मा कर्मोदय में बड़े-बड़े अनर्थ कर डालता है वही आत्मा समय पाकर धर्मात्मा हो हो जाता है। अतः यदि कोई जीव कर्म के विपाक में धर्म से शिथिल होने के सम्मुख हो या शिथिल हो जाय तब धर्मात्मा पुरुष का काम है कि उसका स्थितिकरण करे । गल्पवाद मात्र से स्थितिकरण नहीं होता उसके लिए मन, बचन, काय तथा धनादि सामग्री से उसको रक्षा करना चाहिये। हम लोग व्याख्यानों में संसार भर की बात कह जाते हैं किन्तु उपयोग में रत्ती भर भी नहीं लाते । इस पर-"क्या कहें पंचम काल है, धर्मात्माओं की संख्या घट गई, कोई उपाय वृद्धि का नहीं" इत्यादि कथा कर सन्तोष कर लेना कायरों का काम है यदि
आप चाहो तो आज हो संसार में धर्म का प्रचार हो सकता है। पहिले तो हमें स्वयं धर्मात्मा बनना चाहिये पश्चात् यथाशक्ति उसका प्रचार करना चाहिये। यदि हमारे घर में ५) प्रति
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