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________________ २७१ स्थितिकरण अङ्ग की परिपाटी है यह परिपाटी यहीं पूर्ण नहीं होती। इसके सद्भाव में जिन कर्मों का अर्जन करता है इनके अभाव में वे कर्म भो उदय में आकर अपना कार्य कराते ही हैं चाहे वह आत्मा का कुछ अन्यथा न कर सकें परन्तु प्रदेश परिस्पन्दन तो करा ही देते हैं। जैसे मोह के अभाव होने से क्षीण माह हो गया और अन्तमु हूत में ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश होकर अनन्त चतुष्टय का स्वामी भी हो गया, परन्तु फिर भी अनेक देशों में भ्रमण करता है और जीवों के हितार्थ अनेक बार दिव्योपदेश भी करता है । जब यह व्यवस्था है तब यदि कोई व्यक्ति कर्मोदय से धोरता से च्युत हो जावे तो क्या आश्चर्य है ? इसलिये धर्मात्माओं का प्रथम कर्तव्य होना चाहिये कि स्थितकरण अङ्ग को अपनावें । बड़े-बड़े कर्म के चक्र में आ जाते हैं तब यदि यह क्षुद्र जीव आ जावे तब आश्चर्य को कौन-सी बात ? श्री रामचन्द्रजी बलभद्र होते हुए भी सीता के अपहरण होने पर इतने व्याकुल हुए कि वृक्षों से पूछते हैं क्या आप लोगों ने देखा है हमारी सोता कहाँ गई ? कौन ले गया ? पर वस्तु ही तो थी यदि चली गई तो रामचन्द्रजी महाराज की कौनसी क्षति हुई। तथा लक्ष्मण का अन्त हो गया तब उन्हें लिये लिये छह मास तक दर दर भ्रमण करते फिरे ! इसी तरह यदि वर्तमान में किसी के स्त्री का वियोग हो जावे या पुत्रादि का वियोग हो जावे और वह उसके दुःख से यदि दुखी हो जावे तब क्या वह सम्यग्दर्शन से च्युत हो गया ? अथवा कल्पना करो च्युत भी हो जावे तब उसे फिर उसी पद में स्थितिकरण करो। कर्म के विपाक में क्या-क्या नहीं होता ? आपने पद्मपुराण में पढ़ा होगा कि विभीषण ने जब निमित्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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