SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्णी-वाणी के लिए भोजनादिग्रहण करता ही है । यद्यपि यह निश्चय है कि कोई किसी का उपकार नहीं करता फिर भी हजारों शिष्यों को दीक्षा, शिक्षा देते ही हैं। स्वयं कहते हैं“यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान्प्रतिपादये । उन्मत्त चेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः || ” तथा उपदेश देते हैं " यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा । जानन्न दृश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ॥" " जो जानने वाला है वह तो दिखता नहीं और जो दिखता है वह जाननेवाला नहीं तब किससे वाग्व्यवहार करूँ । अर्थात् किसी से बचन व्यवहार नहीं करना" यह तो शिष्यों को पाठ पढ़ाते हैं और आप स्वयं इसी व्यवहार को कर रहे हैं । तथा श्री आचार्यवर्यों को यह निश्चय है कि सर्व पदार्थ स्वतः सिद्ध अनादि निधन धारावाही प्रवाह से चले आ रहे हैं । तथा चले जावेंगे फिर भी मोह में भावना यह हो रही है"सत्वेषुमैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं । माध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ - सदा ममात्मा विधातु देव ||" " संसार के सभी प्राणियों से मेरा मैत्रीभाव हो, अपने से अधिक गुणवानों को देख कर आनन्द हो, दुःखियों के प्रति दया और अपने प्रतिकूल चलनेवालों के प्रति माध्यस्थ भाव हो । " इससे यह सिद्धान्त निकला कि सम्यग्दर्श के होने से यथार्थ ज्ञान हो गया हैं फिर भी चारित्रमोह के उदय में क्या क्या व्यापार करता है सो किसी से अज्ञात नहीं । यह तो मोह Jain Education International २७० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy