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स्थितिकरण अङ्ग
तथा यह भी दृढ़ निश्चय है कि आत्मा अमूर्तिक ज्ञानादि गुणों का पिण्ड है, आत्मा में जो रागादिक हैं वे आत्मा के विभाव भाव हैं, इनके द्वारा आत्मा निज स्वरूप से च्युत है इनसे
आत्मा को बंध होता है। ये भाव आत्मा को दुःखदायी हैं, पदार्थों का परिणमन आत्मीय चतुष्टय के द्वारा हो रहा है कोई किसी के परिणमन के अस्तित्व को अन्यथा नहीं कर सकता अथवा जिसमें जो परिणमन की शक्ति नहीं उसमें वह परिणमन करने की कोई शक्ति नहीं जो करा सके । फिर भी चारि• त्रमोह के उदय की बलवत्ता देखिये कि सम्यग्दर्शन के द्वारा यथार्थ निर्णय होने पर भी जीव संसार को सुधारना चाहता है, विवाहादि कार्य कर गृहस्थ बनता है, बाल कादि उत्पन्न कर हर्ष मानता है, शत्रुओं के साथ बिरोधी हिंसा कर उन्हें पराजित करता है या स्वयं पराजित होता है। जगत भर की सम्पदा का संग्रह करता है और सम्यग्दर्शन के बल से श्रद्धा इतनी निमल है कि इस जगत में मेरा परमाणुमात्र भी नहीं तथा मन्द कंषायोदय हुआ तो देशव्रत को अङ्गीकार करता है। उसके ग्यारह भेद होते है, अन्त के भेद में एक लँगोटीमात्र परिग्रह रह जाता है। उसको पर जानता हुआ भी छोड़ने में असमर्थ है। यह क्या मामला ? चारित्र मोह की ही महिमा है। पूर्व मोह की अपेक्षा विशेष मोह मन्द हुआ तब वह लँगोटी मात्र परिग्रह त्याग देता है, नग्न दैगम्बरी दीक्षा धारण करता है, सभी परिग्रह को त्याग देता है तिलतुषमात्र भी परिग्रह नहीं रखता। फिर जो मोह उदय में है उसकी महिमा देखो कि जीवों की रक्षा के लिये पीछी और शौच के लिए कमण्डलु तथा ज्ञानाभ्यास के लिए पुस्तक परिग्रह को रखता भी है। आत्मा द्रव्योपेक्षया अजर अमर है फिर भी पर्याय की स्थिरता
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