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समाज की उन्नति में बाधक कारणों को दूरकर वर्णाजी ने दुन्देलखण्ड में जो समाज-सुधार किया, उसीका परिणाम है कि बुन्देलखण्ड के जैन समाज में जैन संस्कृति जीवित रह सकी है ।
संस्था-संस्थापक
प्रकृति का यह नियम - सा है किं जब किसी देश या प्रान्त का पतन होना प्रारम्भ होता है तब कोई उद्धारक भी उत्पन्न हो जाता है । बुन्देलखण्ड में जब अज्ञान का साम्राज्य हा पया तब वर्णीजी जैसे विद्वदुरत्न बुन्देलखण्ड को प्राप्त हुए । विद्या-प्रेम तो आपका इतना प्रगाढ़ है कि दूसरों को ज्ञान देना ही वे अपने लिये ज्ञानार्जन का प्रधान साधन समझते हैं । प्रतीत होता है, वर्णीजी ज्ञान प्रचार के लिये ही इस संसार में आये थे । उन्होंने १-श्री गणेश दि० जैन संस्कृत विद्यालय सागर, २ - श्रीगुरुदत्त दि जैन पा० द्रोणगिरि, ३ - श्री पार्श्वनाथ विद्यालय बरुआसागर, ४ - श्री. शान्तिनाथ दि० जैन पा० अहार, ५ - श्री पुष्पदन्त विद्यालय शाहपुर, ६ - शिक्षा - मन्दिर जबलपुर, ७ - श्री गणेश गुरुकुल पटनागंज, ८- श्री द्रोणगिरि क्षेत्र गुरुकुल मलहरा, ६- जैन गुरुकुत्त जबलपुर आदि पाठशालाओं, विद्यालयों, शिक्षा - मन्दिरों और गुरुकुलों की स्थापना की । बुन्देलखण्ड की इन शिक्षा संस्थाओं के अतिरिक्त सकल विद्याओं के केन्द्र काशी में भी जैन समाज की प्रमुख आदर्श संस्था श्री स्याद्वाद दि० जैन संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की ।
बुन्देलखण्ड जैसे प्रान्त में इन संस्थाओं की स्थापना देखकर तो यही कहना पड़ता है कि इस प्रान्त में जो भी शिक्षा प्रचार हुआ वह सब वर्णा जी जैसे कर्मठ व्यक्ति का सफल प्रयास और सच्ची लगन का फल है । वर्णांजी के शिक्षा प्रचार से बुन्देलखण्ड का जो काया पलट हुआ वह इसी से जाना जा सकता है कि आज से ५० वर्ष पूर्व जिस बुन्देलखण्ड में तत्वार्थ सूत्र और सहस्रनाम जैसे संस्कृत के साधारण ग्रन्थ मूलमात्र पढ़ लेनेवाले महाशय पण्डित कहलाते थे उसी बुन्देलखण्ड का आज यह आदर्श है कि
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