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________________ वर्णी-वाणी २५६ हैं कि बाप बालक से प्रेम कर रहा है । बस्तुतः बाप बालक से प्रेम नहीं करता किन्तु उसके अन्दर बालक के साथ कोड़ा करने की जो इच्छा जन्य वेदना उत्पन्न होती है उसके दूर करने के लिये ही पिता का प्रयास है । लोक में इसी को कहते हैं कि पिता पुत्र को खिला रहा है। यही व्यवस्था प्रत्येक कार्य में मानना न्याय्य है । जब हम किसी को दुखी देखते हैं तब उसके दुःख हरण के अर्थ दान देते हैं और लोक में यह प्रसिद्धि होती है कि अमुक व्यक्ति दरिद्र दीनों के ऊपर दया करता है ! वह बड़ा महोपकारी है । वास्तव में देखा जावे तो हम उसका उपकार नहीं करते किन्तु उस दीन-दरिद्र को देखकर जो करुणाकषाय उत्पन्न होती हैं उससे स्वयं दुःखित हो जाते हैं । उस दुःख के दूर करने का उपाय यही है कि उसके दुःख का प्रतिकार करें । परमार्थ से देखा जाय तो अपने ही दुःख का प्रतिकार करते हैं । इसी को लौकिक जन 'दया' कहते हैं और शास्त्रों में इसे ही परदुःखाच्छा कहा है । वास्तव में परदुःखप्रहारोच्छा से हम स्वयं दुखी हो जाते हैं । जब तक उसके दूर करने की इच्छा हृदय में जागृत रहती है तब तक हमको चैन नहीं मिलता; अतः उस बेचैनी को दूर करने के लिये ही हम प्रयास करते हैं। लोक में व्यवहार होता है कि अमुक व्यक्ति बड़ा परोपकारी है परन्तु उसके परोपकार में आत्मोपकार ही छिपा हुआ है । सर्वत्र यही प्रक्रिया लागू होती है । हम चाहे उसे अन्यथा समझें यह अन्य बात है परन्तु वस्तु मर्यादा यही है । जब मनुष्य तीव्र कषाय से दुखी होता है तब उस तीव्र कषाय की निवृत्ति के लिये नाना प्रकार के उपायों का आश्रय लेता है । यहां प्रक्रिया मन्दकषाय के उदय में होती है। तीव्र और मन्द कषाय में केवल इतना ही अन्तर है कि तीव्र कषाय के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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