________________
२५७
मेरी श्रद्धा
आवेश में हम पराया अनुपकार करके तोत्र कषाय जन्य वेदना दूर करने का प्रयत्न करते हैं। जैसे क्रोध के आवेश में पर को मारना ताड़ना इत्यादि क्रिया होतो है । मन्द कषाय में पर के उपकारादि की भावना रहती है परन्तु दोनों जगह अभिप्राय केवल स्त्रीय कषाय जनित वेदना के प्रतिकार का रहता है। संसारी मानवों की कथा तो दूर रही जो सम्यग्ज्ञानी अविरतो मनुष्य हैं उनको क्रिया परोपकार के लिये होती है। उनके अभिप्राय में भी आत्मीय कषाय जनित पीड़ा को निवृत्ति करना एक यही लक्ष्य रहता है। अविरती मनुष्यों की कथा को छोड़ो, व्रती मनुष्यों के द्वारा जो परोपकार के कार्य किये जाते हैं उनका भी यहा अभिप्राय रहता है कि किसी तरह से कषाय जनित पीड़ा को निवृत्ति हो । अथवा इनकी कथा छोड़ो महाव्रती भी कषाय जन्य पड़ा से व्यथित होकर उसको दूर करने के लिये अपने उपयोग को नाना प्रकार के शुभोपयोग में लगाते है । अतः यह सिद्ध हुआ कि कोई भी जोव संसार में परोपकार नहीं करता किन्तु मैंने परोपकार किया ऐसा व्यवहार मात्र होता है । ___ माह के उदय में यही होता है, मोह को महिमा अपरम्पार हैं-देखिये, श्री पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं
"यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा । जानन दृश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ।।" तथा"न परैः प्रतिपाद्योऽहं न परान्प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ।।" तात्पर्य यह है कि जिसे हम देखते हैं वह तो जानता नहीं ओर जो जाननेवाला हैं वह दृष्टिगोचर नहीं होता फिर किसके साथ बोलने का व्यवहार करें ? अर्थात् किसी के साथ बोलने
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org