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________________ वर्णी-वाणी २५४ का भाव जिसमें हुआ वही आत्मा है। यदि अपराधी मुँह और हाथ होता तब इनको दण्ड देना उचित था सो वे तो अपराधी नहीं अपराधी तो आत्मा है। यही तो आत्मा है जो इन कार्यों में अन्तरङ्ग से कलुषित होता है। यदि हम चाहें तो हर कार्य में पर से भिन्न आत्मा का अनुभव कर सकते हैं। इसके लिये बड़े-बड़े शास्त्रों और समागमों की आवश्यकता नहीं। आत्मज्ञान तो चलते-फिरते, खाते. । पीते, पूजन स्वाध्याय करते समय सहज ही हो जाता है किन्तु हम उस ओर दृष्टि नहीं देते। हमारी दृष्टि पर की ओर रहती है। जैसे किसी ने किसी से कहा-"कौआ आपका कान ले गया" तो यह सुनकर वह कोवे के पीछे तो दोड़ता है किन्तु अपने कान पर हाथ नहीं रखता। न कौवा कान ले गया और न आत्मा पर में है । अपनो ओर दृष्टि देने से अनायास आत्मज्ञान हो सकता है परन्तु हम अनादि से पर को आत्मीय माननेवाले उस तरफ लक्ष्य नही देते । यही कारण है कि दरदर दीन की तरह भटकते फिर रहे हैं । यह दीनता इसी समय मिट जावे यदि अपनी ओर लक्ष्य हो जावे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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