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निश्चय और व्यवहार श्चरण कर शरीर को लकड़ बना दिया परन्तु अन्त में बात यही निकली कि आत्मज्ञान होना अति कठिन है और यह कहकर सन्तोष कर लिया कि ग्यारह अङ्ग के पाठी भी जब तत्व ज्ञान से शून्य रहते हैं तब हमारी कथा हो क्या है ? यह सब अज्ञान का विलास है। यदि परमार्थ से विचारो तब यह तो तुम्हें ज्ञात है ही कि हमको छोड़ कर शेष पदार्थ चाहे वह चेतन हों, चाहे अचेतन हों, चाहे मिश्र हो; हमसे सब भिन्न हैं । जैसे आप यही तो कहते हैं-"यह मेरा बेटा है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा पिता है, यह मेरी माँ है ।” यह तो नहीं कहते-"मैं बेटा हूँ, मैं बाप हूं, मैं स्त्री हूँ, मैं माँ हूँ।” इससे सिद्ध हो गया कि आप उनसे भिन्न हैं। इसी प्रकार अपने से अतिरिक्त जितने पदार्थ है यही व्यवस्था उनके सम्बन्ध में भी जानना चाहिये।
अब रह गया निज शरीर, जिसके साथ आत्मा एक क्षेत्रावगाही हो रहा है सो यह भी भिन्न वस्तु है। जैसे देखिये-किसी ने किसी के साथ विसंवाद किया और विसंबाद में अपने मुख से दूसरे को गाली दी और थप्पड़ भी मार दी। तब वह बोला-"भाई अब रहने दो, जितना हमारा अपराध था उसका दण्ड आपने दे दिया। मैं आपको इसका धन्यवाद देता हूँ। अब आगे आपका अपराध नहीं करूँगा। अब शान्त हो जाइये।" इस वाक्य को सुनकर गाली और थप्पड़ देने वाला एकदम शान्त हो गया और विचार करने लगा-"भाई सा० ! आपने मेरा बहुत उपकार किया, मैंने बड़ी भारी अज्ञानता से काम लिया कि आपको गाली दी और थप्पड़ भी मारी।” अब विचारिये गाली देनेवाला मुख है या आत्मा ? मुख तो शब्दोच्चारण में कारण हुआ क्रोध की उत्पत्ति जिस में हुई थी वही तो आत्मा है। इसी तरह थप्पड़ मारने में हाथ निमित हुआ, थप्पड़ मारने
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