SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निश्चय और व्यवहार आचार्यों ने निश्चय और व्यवहार का अपनी-अपनी शैली से निरूपण किया है इनके विषय में मैं न विशेष जानता हूँ और न जानने की इच्छा है। मैं तो यह समझता हूँ कि जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं । उनमें पुद्गल द्रव्य तो इन्द्रिय के द्वारा ज्ञान में आता है और धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य आगम गम्य हैं । हम यहाँ पर दो द्रव्यों की चर्चा करना चाहते हैं जो प्रत्यक्ष है। पुद्गल तो इन्द्रिय जन्म ज्ञान से प्रत्यक्ष है और आत्मा सुख, दुःख, ज्ञानादि गुण के द्वारा जाना जाता है। ____ आत्म की दो अवस्थाएँ हैं- संसारावस्था और मुत्तावस्था। इनमें से मुक्तावस्था का तो हमको प्रत्यक्ष नहीं किन्तु संसारावस्था का प्रत्यक्ष है। हमें निरन्तर जो रागद्वेषादि विभावों का अनुभव हो रहा है उसी का नाम संसार है। __ यद्यपि हमको निरन्तर राग द्वष का अनुभव होता है परन्तु सर्वथा नहीं। कभी राग द्वेष के अभाव में जो अवस्था होती है उसका भी अनुभव होता है। जैसे कल्पना कीजिये कि हमको रूप देखने की इच्छा हुई और जैसा रूप देखने का हमारा भाब था वैसा ही वह देखने में आया तो उस समय हम शान्ति. और सुख में मग्न हो जाते हैं। विचार कीजिये जो शान्ति हुई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy