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वर्णी-वाणी
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स्थित हैं ज्ञानावरणादि रूप हो जाती हैं और उनका आत्मा के साथ बन्ध हो जाता है । फिर जब वे कर्म उदय में आते हैं तब इसके रागादि रूप परिणाम होते हैं। इस प्रकार कर्म और रागादि भावों का निन्तर चक्र चालू रहता है। कर्म के उदय से रागादि भाव होते हैं और रागादि भावों से कर्म का बन्ध होता है । इस प्रकार यह जीव निरन्तर इस संसार चक्र में घूम रहा है जिससे यह निरन्तर सन्तप्त होता है । अतः प्रत्येक प्राणी का यही कर्तव्य है कि वह इसके कारणों का त्याग करे ।
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