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संसार
ऐसा कहते हैं कि ज्ञान गुण को छोड़कर शेष गुण निर्विकल्प हैं पर उनका ऐसा कहना ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि ज्ञान गुण तो प्रकाशक है। उसमें जो पदार्थ जैसा है वैसा प्रतिभासित हो जाता है। श्री कुन्दकुन्द देव ने समय सार में लिखा है
'उवोगस्स अणाइ परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स । मिच्छतं अण्णाणं अविरय भावो य णायव्यो ।'
उपयोग स्वभाव से सम्पूर्ण पदार्थों के स्वरूप को जानने की स्वच्छता रखता है। जिस समय मोहादि कर्मों का विपाक होता है उस समय दर्शन और चारित्र गुण मिथ्यात्व और रागादि रूप परिणमन को प्राप्त हो जाता है तथा उसका भान ज्ञान गुण में होता है। तब ऐसा मालूम होता है कि 'मैं रागी हूं, द्वेषी हूं, मोही हूँ।' बास्तव में ये परिणमन ज्ञान गुण के नहीं हैं किन्तु दर्शन और चारित्र गुण के हैं। जैसे दर्पण में अग्नि प्रतिभासमान होती है परन्तु दर्पण में उष्णता व ज्वाला नहीं होती, क्योंकि ये अग्नि के धर्म हैं। दर्पण में जो अग्नि भासमान हो रही है वह सब दर्पण की स्वच्छता का विकार है। इसी तरह आत्मा का ज्ञान गुण स्वपर को जाननेवाला है। जिस समय इस आत्मा में मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है उस समय इसका दर्शन गुण यथार्थ परिणमन न कर विपरीत परिणमन करता है । अर्थात् उस समय जीव का अभिप्राय विरूप हो जाता है। अतः उस समय इसके ज्ञान गुण में भी उसका भान होता है। यह कुछ उस रूप नहीं हो जाता है। यह सब व्यवस्था इसी प्रकार चली आ रही है। संसार क्या वस्तु है ? यही तो हैं कि जब यह आत्मा योग और कषाय रूप परिणमता है तब वे कामण वर्गणायें जो कि इसके प्रदेशों पर
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