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वर्ण-वाणी
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समय भेद होता है वैसा उपादान में समय भेद नहीं होता। कार्य उपादान के अनुरूप होता है। जितने कार्य हैं उनकी यही पद्धति है। फिर भी संसार में मोही जीव व्यर्थ ही अन्य का कर्ता बनता है। निमित्त कारण का परिणमन निमित्त में होता है अर उपादान की पर्याय उपादान में होती है। जो अन्य द्रव्य की पर्याय की अपेक्षा निमित्त व्यपदेश को प्रात होता है वही अपनी पर्याय की अपेक्षा उपादान भी है। हम लोग इस रहस्य को न समझ कर व्यर्थ के विवाद में समय बिताते हैं । जब यह निश्चय हो गया कि एक द्रव्य द्रव्यान्तर का कुछ नहीं कर सकता तब जहाँ पर परस्पर सिद्धान्त की चर्चा होती हो और एक सिद्धान्त के विषय में जहाँ दो मत हों वहाँ चर्चा में परस्पर वैमनस्य नहीं होना चाहिये चाहे वह किसी के प्रतिकूल ही क्यों न हो। यदि वहाँ किसी एक का यह अभिप्राय हो गया कि मैं इसे अपनी बात मनबा कर ही रहूँगा तब वह “एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर सकता" इस सिद्धान्त से च्युत हो गया। अधिक क्या लिखें । वस्तु की मर्यादा तो जैसी है उसे कोई भी शक्ति अन्यथा नहीं कर सकती। परन्तु मोहो जीव मोहवश अन्यथा करना चाहते हैं। यही उनका भ्रम है अतः इसे त्यागना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि यह भ्रम हो संसार का मूल है। जो जीव इस भ्रम के आध न हैं वे संसरो हैं मिथ्या दृष्टि हैं और जिन्होंने इसे त्याग दिया वे ही मुक्ति के पात्र हैं। आगम में बन्ध के कारण कितने ही क्यों न बतलाये हो मुख्य कारण यह भ्रम ही है। इस भ्रम को बदलने के लिये मूल में श्रद्धा का निर्मल होना जरूरी है। समीचीन श्रद्धा से ही चारित्र में निर्मलता आती है। मेरी तो यह श्रद्धा है कि दर्शन और चरित्र को छोड़कर अन्य सब गुण निर्विकल्प हैं। कोई तो
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