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________________ संसार निमित्त कहा है जगत् में और भी जीव हैं पर उनमें यह परि मन नहीं होता किन्तु जिस जीव के साथ मोह का बन्ध है उसी में यह परिणमन होता है। इसी प्रकार धर्मादि चार शुद्ध द्रव्य भी वहाँ पर हैं पर वहाँ भी यह परिणमन नहीं होता । इसका कारण यह है कि उनका यह निमित्त कारण नहीं है । २४७ जगत् में छह द्रव्य हैं । उनमें धर्मादि चार द्रव्य तो शुद्ध हैं । उनमें द्रव्य के संयोग से कभी भी विपरिणति नहीं होती । जाव और पुल ये दो ही द्रव्य ऐसे हैं जिनमें शुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकार परिणमन होता है । बद्ध दशा में अशुद्ध परिणमन होता है और मुक्त दशा में शुद्ध परिणमन होता है । यही कारण है कि जब और पुद्गल में वैभाविक शक्ति मानी गई हैं । जब तक अशुद्धता के निमित्त रहते हैं तब तक इसका विभाव परिणमन होता है और निमित्तों के हटते ही स्वभाव परिणमन होने लगता है । पुद्गल में स्वयं बँधने और छूटने की योग्यता है इसलिये उसका बन्ध अनादि और सादि दोनों प्रकार का होता है किन्तु जीव की स्थिति इससे भिन्न है । उसके रागादि परिणामों के निमित्त से बन्ध होता है और रागादि परिणाम कर्म के निमित्त से होते है इसलिये कर्म के साथ इसका बन्ध अनादि माना गया है । इस प्रकार का यह निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध चल रहा हैं | पर इस निमित्तक सम्बन्ध को देखकर निमित्त पर अवलम्बित रहना उचित नहीं है। यह तो कार्यप्रणाली के सम्बन्ध से वस्तु का स्वभाव दिखलाया गया है । वस्तुतः कार्य की उत्पत्ति तो उपादान कारण से होती है निमित्त तो सहकारो मात्र होता है । सहकारी कारण अनेक होते हैं किन्तु उपादान कारण एक होता है । द्रव्य उपादान कारण है और प्रति समय की अवस्था उसका कार्य है । कार्य में जैसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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