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________________ वर्णी-वाणी २४६ त्तिक सम्बन्ध है। फिर भी जो आत्मा की विविध अवस्थाओं का कर्ता कर्म को मानता है वह अज्ञानी है। कर्म तो अचेतन है । चेतन पदार्थ भी दूसरे का कुछ नहीं कर सकता है । क्योंकि अचेतन का परिणमन अचेतन में होता है और चेतन का परिणमन चेतन में होता है। अन्य अचेतन पदार्थ बिना ही चेतन परिणामों के स्वयमेव परिणमन करता है और इसी प्रकार चेतन पदार्थ भी विना ही अचेतन पदार्थ के स्वयमेव परिणमन करता है । जैसे जिस समय घटरूप पर्याय प्रकट होता है उस समय कुम्भकार आत्मीय योग र विकल्प का कर्ता होता है। यों तो घट निष्पत्ति में तीन बातें आवश्यक मानी गई है। १-उपादान कारण का प्रत्यक्ष ज्ञान, २-घट बनाने की इच्छा और ३-घट निष्पत्ति के अनुकूल व्यापार । ये तीन तरह के परिणाम कारण हैं । कुम्भकार को घट के उपादान कारण मृत्तिका द्रव्य का प्रत्यक्ष ज्ञान होना चाहिये, घट बनाने की इच्छा भी होना चाहिये और तदनुकूल प्रयत्न भी होना चाहिये । ये बातें कुम्भकार में होती हैं और योग द्वारा उसके आत्मप्रदेश चलायमान होते हैं । जिसका निमित्त पाकर दण्डादि में ब्यापार हो जाता है और उसके निमित्त से घट बन जाता है। जो कार्य पुरुष के प्रयत्न पूर्वक होते हैं उनके होने की यह पद्धति है । इसी प्रकार आत्मा में जो रागादि भाव होते हैं वे मोहोदयनिमित्तिक माने गये हैं। यहाँ भी पुद्गल कर्म मोह का विपाक मोह कर्म में ही होता है किन्तु उसो काल में आत्मा मोहरूप परिणम जाता है । कोई दूसरा परिणमन कराने वाला नहीं है । स्वयमेव ऐसा परिणमन हो रहा है। परन्तु इतना अवश्य है कि मोह कर्म के विपाक के बिना ऐसा परिणमन नहीं होता है। इसीसे मोह कर्म के विपाक को रागादि परिणामों के होने में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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