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संसार
जाना है। आशय यह है कि जो पुरुष "मैं श्रमण हूँ और मैं श्रमण का उपासक हूँ" ऐसा मिथ्या अहंकार करते हैं वे एक मात्र अनादि काल से चले आ रहे व्यवहार में ही मूढ़ हैं वास्तव में वे विशद विवेक स्वरूप निश्चय को नहीं प्राप्त हुए हैं । जो ऐसे मनुष्य हैं वे परमार्थ सत्य भगवान् समयसार को नहीं प्राप्त होते। वास्तव में उनकी द्रव्यलिंग के ममकार से अन्तर्दृष्टि तिरोहित हो गई है, इसलिये उन्हें समयसार दिखाई नहीं देता । द्रव्यलिंग पराश्रित है और ज्ञान स्वाश्रित है। इसलिये पराश्रित वस्तु से ममकार और अहंकार भाव का हटा लेना ही श्रेयस्कर है। क्योंकि जो पराधीन होता है वह कदापि सुख का पात्र नहीं होता। यह कौन नहीं जानता कि द्रव्य लिंग शरीराश्रित होता है इसलिये इसके द्वारा आत्मा अपने अभीष्ट पदको भला कैसे प्रार कर सकता है ? एक ज्ञान ही आत्मा का निज गुण है जो कि स्वाश्रित है, इसलिये मुख का कारण वही हो सकता है । अतः जिन्हें स्वतन्त्र सुख की प्राति इष्ट है उन्हें पराधोन शरीराश्रित लिंग को ममता का त्याग करना चाहिये । कार्य निष्पत्ति में निमित्त का स्थान __ आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं । किन्तु अपने जिन विभावरूप परिणामों के कारण यह आत्मा संसार में रुल रहा है वे परिणाम जिस काल में जिस रूप होते हैं उस काल में उनका निमित्त पाकर मोहादि कर्म स्वयमेव वैसे संस्कारवाले होकर आत्मा से सम्बन्ध को प्रात हो जाते है और जिस काल में वे अपने परिणमन द्वारा स्वयमेव उदय में आते हैं उस काल में उनके निमित्त से आत्मा स्वयमेव रागादिरूप परिणम जाता है। इतना ही विभावपरिणामों का और कर्म का निमित्तनैमि
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