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________________ वर्णी-वाणी २४४ द्रव्यका स्वभाव परिणमनशील है। जब इस जीव के मोहादि कर्मका सम्बन्ध रहता है तब इसकी स्वच्छता विकृत हो जाती है और उस समय यह पर पदार्थों में श्रद्धा, ज्ञान और आचरण तीनों की प्रवृत्ति करता है । इसलिये ये ही तीनों मिथ्या दर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र कहलाते हैं। किन्तु जब इसका मोहादि कर्मों से सम्बन्ध छूट जाता है तब यह अपने स्वभावरूप परिणमन करता है और उसमें तन्मय होकर दर्शन, ज्ञान और चारित्र में ही विहार करता है। इसी बातको ध्यान में रखकर आचार्य महाराज उपदेश देते हैं कि प्रतिक्षण शुद्ध रूप होकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में ही विहार करो तथा एकरूप अचल ज्ञान का ही अवलम्बन करो। किन्तु ज्ञान में ज्ञयरूप से जो अनेक पर द्रव्य भासमान हो रहे हैं उनमें विहार मत करो, क्योंकि मोक्षमार्ग एक ही है और वह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रात्मक ही है। उसीमें स्थिर होओ, उसीका निरन्तर ध्यान करो, उसीका निरन्तर चिन्तवन करो तथा द्रन्यान्तर को स्पर्श किये बिना उसी में निरन्तर विहार करो। जो ऐसी प्रवृत्ति करता है वह बहुत ही शघ्र समय का सारभूत और नित्य ही उदयरूप परमात्मपद का लाभ करता है। किन्तु जो इस संवृत्तिपथ का त्याग कर और द्रव्य लिंग धारण कर तत्त्व ज्ञान से च्युत हो जाता है वह नित्य ही उदयरूप और स्वभावक प्रभाभार से पूरित समयसार को नहीं प्राप्त कर सकता है। यही श्री समयप्राभृत में कुन्दकुन्ददेवने कहा है'पाखंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारे सु । कुवंति जे ममतं तेहिं ण णाणं समयसारं ।।' जो पुरुष पाखण्डी लिंगों में तथा बहुत प्रकार के गृहस्थ लिंगों में ममता धारण करते हैं उन्होंने समयसार को नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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