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संसार
जीव का निरन्तर पर-पदार्थों में चित्त जाता रहता है और कषाय के वशीभूत होकर नाना प्रकार के विकल्प होते रहते हैं तथा उन विकल्पों के विषयभूत पदार्थों में इष्टानिष्ट कल्पना होती है । अतः उन सबसे चित्त को हटाकर उसे एक ज्ञेय में स्थिर करना चाहिये । यद्यपि जिसके आर्त और रौद्र ध्यान है वह भी एक ज्ञेय में चित्त को स्थिर कर लेता है। वह भी जिसे इष्ट और प्रिय मानता है उसे अपनाता है या उसमें तन्मय हो जाता है और जिसे अप्रिय और अनिष्ट मानता है उसे दूर करने के लिये नाना प्रकार के प्रयत्न करता है। किन्तु यहाँ ऐसो चित्त को एकाग्रता विवक्षित है जिसमें राग-द्वेष का लेश न हो । ज्ञेय में रागादि रूप कल्पना न हो इस प्रकार चित्त को ज्ञेय में स्थिर करना चाहिये, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इसो प्रकार यह जीव निरन्तर कर्म चेतना और कर्मफल चेतना के वशीभूत हो रहा है अतः अपने चित्त को वहाँ से हटा कर एक ज्ञान चेतना में लगाना चाहिये । यह जीव निरन्तर अज्ञानवश अन्य पदार्थों में कर्तृत्व बुद्धि और अहं बुद्धि करता रहता है अतः उसे त्याग कर एक ज्ञानस्वरूप आत्मा का अनुभव करना चाहिये । माना कि ज्ञान में यसम्बन्धी नाना प्रकार के विकल्प आते रहते हैं पर उनमें स्वत्व कल्पना न कर अपने आत्मा को `य से जुदा अनुभव करना चाहिये । ज्ञेय न तो मिथ्यादृष्टि के ज्ञान में जाता है और न सम्यग्ज्ञानी के ज्ञान में जाता है। ऐसा सिद्धान्त है
'णाणं ण जादि णेये णेयं ण जादि णाणदेसम्हि ।'
केवल यह जीव मोहवश ज्ञेयको अपना मान लेता है अतः उस मान्यता का त्याग कर निजका अनुभवन करना ही श्रेय. स्कर है।
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