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________________ संसार देते हो ?" तब उत्तर मिलता है-"वह हमारो जातिका नहीं, आप तो हमारी जाति के हैं, पतित हो गये हो । आप किसी को दान नहीं दे सकते चाहे मुनि हो चाहे त्यागी हो। आप हस्तलिखत शास्त्रोंका उपयोग नहीं कर सकते।" जोमन में आता है सो बोलता है-"स्त्री वर्ग को पूजन करनेका अधिकार है परन्तु वह वह मूर्तिका स्पर्श नहीं कर सकती क्योंकि उसके निरन्तर शङ्का रहतो है, आदि ।” जहां अपने सजातीय वर्गको यह दशा है वहां शूद्रों की क्या कथा ? उनके मन्दिर प्रवेश की बात तो अभी जैनियों में दूर है ! यद्यपि यह कल्पना आगमोक्त नहीं परन्तु मिथ्यात्व के उदय में जो जो अनर्थ न हों सब थोड़े हैं। मोक्ष प्राप्ति में उच्चगति आवश्यक नहीं आगम तो यहकहता है--"चारों ही गति में संसार का नाशक सम्यग्दर्शन होता है, निर्यग्गति में देशसंयम होता है । मनुष्यगति में सकलसंयम होता हैं । क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति ओर तीर्थकर प्रकृति का बन्ध कर्मभूमि के मनुष्यों के होता है। वहां यह नहीं लिखा--"अमुक गति, अमुक वर्ण अमुक जाति या अमुक वर्ग वर्णवाला ही इसका अधिकारी है। अपि तु महान् पापोपार्जन करके भी जीव क्षायिक सम्यग्दर्शन और तीर्थङ्कर प्रकृति का अधिकारी हो सकता है।” राजा श्रेणिक ने मुनि निन्दा से नरकायु का बन्ध कर लिया था फिर भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर तोर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध किया। बहुत से जीव उत्तमकुल में हुए परन्तु पाप करके वे नरक चले गये और जिन्हें आप नोच कुलवाले समझते हैं वे धर्म करके उत्तमगति में चले गये। जिन्हें आप नीच गोत्रवाले तिर्यञ्च कहते हैं वे जीव भी धर्म के प्रसाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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