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________________ अर्णी-वाणी अभिप्रायसे मुक्त हो जाता है। जब तक जीवके मिथ्यात्व रहता है तब तक इसका ज्ञान मिथ्या रहता है और जब मिथ्याज्ञान रहता है तब पर को निज मानता है। अर्थात् तब इसके स्वपर का विवेक नहीं होता। मिथ्याचारित्र इसी मिथ्याज्ञान के बल से पर में ही इसको प्रवृत्ति होती है। इसी का नाम मिथ्याचारित्र है। अर्थात् मिथ्यादर्शन के बल से ही पर में निजत्व की कल्पना होती है और उसी में प्रवृत्ति करता है। कहां तक कहें स्त्री पुत्रादि में निजत्व की कल्पना तो होती ही है, अर्हन्तदेव निर्ग्रन्थ गुरु और द्वादशांग शास्त्र को भी अपने मानने लगता है। हमारा धर्म हमारे गुरु और हमारा आगम इस तरह निजत्व की कल्पना करता है। जो अपने अनुकूल हुए अथवा जिनके साथ रोटी बेटीका व्यवहार होता है उन्हें अपनी जातिका मान लेता है । इसके अतिरिक्त जो शेष बचते है उन्हें कह देता है "आपको मन्दिर आने का अधिकार नहीं, आप पूजन नहीं कर सकते, आप मर्ति का स्पर्श नहीं कर सकते, आप जहां पर प्रतिबिम्ब विराजमान है वहां नहीं जा सकते ! आप दस्सा हो गये, आप मोक्षमार्ग का साधन हमारे मन्दिर में नहीं कर सकते ! आपका हम पानी नहीं पी सकते क्योंकि आप जातिच्युत हैं, बड़े भाग्य से शुद्धता मिलती हैं। यदि आपको दर्शन करना हो तो करलो अन्यथा चले जाओ।" यदि नया लहुरासेन (दस्सा) हुआ तब कह देता है-"जाओ ! अभी तुम दर्शन करने के पात्र नहीं । जब तुम अपनी जाति में मिल जाओगे तब हमारे मन्दिर में आ सकते हो ।” यदि कोई पूछ बैठे-“मन्दिर में माली को क्यों आने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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