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संसार
यह जीव शरीर को आत्मा मानता है और शरीर की नाना अवस्थाओं को अपनी अवस्थाएँ मानता है । उन अवस्थाओं में जो इसके कषायके अनुकूल अवस्था होती है उससे हर्ष मानता है और जो उसके कपाय के प्रतिकूल अवस्था होती है उससे विषाद मानता है । यही मिथ्या ज्ञान है और यही संसार के सुख दुःख का कारण है अतः जिनको संसार दुःखमय भासता है वे इन कषायों से भय करने लगते हैं तथा प्रत्येक कार्य में कषाय की निवृति करने की चेष्टा करते हैं । पञ्चेन्द्रियों के विषय सेवन करने में भी उनका लक्ष्य कपाय निवृत्तिका रहता है। जब राग सुनने की इच्छा होती है तब राग सुनने की इच्छा से आत्मा में एक प्रकार की हलचल हो जाती है उसे दूर करने के लिये ही यह प्रयत्न करता है। इसी तरह और भी जो इच्छा आत्मा में बेचैनी का कारण हो वह कालान्तर में चाहे बुद्धि में न आवे उसके अभाव या दूर करने का प्रयत्न करता है । यही कारण है कि सम्यदृष्टि विषय सेवन करते हुए भी उनमें आसक्त नहीं होता । आसक्ति के अभाव से ही उसके बन्धका अभाव कहा है । बन्ध न होता हो यह बात नहीं है, बन्ध तो होता है परन्तु जो बन्ध अनन्त संसार का कारण होता है वह नहीं होता, क्योंकि संसार का कारण मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कपाय है । उसका उसके अभाव है । माना कि अनन्तानुबन्धी चारित्र मोहनीय प्रकृति है । वह स्वरूपाचरण की घातक है । परन्तु जब मिथ्यात्व के साथ इसका सत्त्व रहता है तब यह सम्यक्त्वगुणको भी नहीं होने देती । इसीसे जब सम्यग्दर्शन होता है तब मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारों कषाथों का उदय नहीं होता । सम्यग्दर्शन के होने पर यह आत्मा परको निज मानने के
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