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________________ ( २२ ) सवारी का त्याग कर दिया। कुछ लोगों ने अपने यहाँ ही महाराज को रोक रखने के लिये सम्मति दी कि यदि आप यातायात छोड़ दें तो शान्ति लाभ हो सकता है परन्तु वणीजी पर इसका दूसरा ही प्रभाव पड़ा और उन्होंने अपने दूसरे ही उद्देश्य से सदा के लिये रेल गाड़ी की सवारी का भी त्याग कर दिया। सं० २००१ में दशम प्रतिमा धारण की, और अब फाल्गुण कृष्ण ७ २००४ में क्षुल्लक भी हो चुके हैं इस दृष्टि से इन्हें अब बाबाजी कहना ही उपयुक्त है परन्तु लोगों की अभिरुचि और प्रसिद्धि के कारण वर्णाजी "वीजी" ही कहलाते हैं और कहलाते रहेंगे। ईशरी के सन्त-- गिरिराज शिखरजी की यात्रा की इच्छा से पैदल चले। लोगों ने बहुत कुछ दलीलें उपस्थित की-“महाराज ! वृद्धावस्था है. शरीर कमजोर है, ऋतु प्रतिकूल है", परन्तु हृदय की लगन को कोई बदल न सका, अतः सवारी का त्याग होते हुए भी रेशंदीगिरि, द्रोणगिरि खजराहा आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा करते हुए कुछ ही दिन बाद ७०० मील का लम्बा मार्ग पैदल ही तय कर सं० १६६३ के फाल्गुण में शिखरजी पहुंच गये । शिखरजी की यात्रा हुई परन्तु मनोकामना शेष थी—“भगवान पार्श्वनाथ के पादपद्मों में ही जीवन बिताया जाय" अतः ईशरी में सन्त जीवन बिताने लगे। आपके प्रभाव से बहाँ जैन उदासीनश्रम की स्थापना हो गई। कल्याणार्थी उदासीन जनों को धर्म साधन करने का सुयोग्य साधन मिला, वर्णाजी के उपदेशामृत पान का शुभ अवसर मिला। सागर के लाल-- वर्णीजी ने बुन्देलखण्ड छोड़ा परन्तु उसके प्रति सच्ची सहानुभूति नहीं छोड़ी, क्योंकि बुन्देलखण्ड पर उनका जितना स्नेह और अधिकार है उतना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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