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कहीं भी पारितोषिक वितरण हुआ, सर्वप्रथम पारितोषिक के अधिकारी भी यही हुए ।
इस तरह कमशः बढ़ते-बढ़ते अब यह साधारण विद्यार्थी या पण्डित नहीं अपितु अपनी शानी के निराले विद्वद् शिरोमणि हुए ।
बड़े पण्डितजी -
विद्वत्ता में तो यह बड़े हैं ही परन्तु संयम की साधना ने तो इन्हें और भी बड़ा ( पूज्य ) बना दिया है । इसलिये जिस तरह गुजरात के लोगों ने गांधीजी को बापू कहना पसन्द किया, उसी तरह बुन्देलखण्ड के भोले भक्तों ने इन्हें बड़े पण्डितजी के नाम से पूजना पसन्द किया ।
इन्हें जितना प्रेम विद्या से था उससे कहीं अधिक भगवद्भक्ति से था, - यही कारण था कि बड़े पण्डितजी ने अपने विद्यार्थी जीवन में ही सं० १६५२. में गिरनार और सं० १९५६ में श्री सम्मेद शिखर जैसे पवित्र तीर्थराजों के . दर्शन कर अपनी भावुकभक्ति को दूसरों के लिये आदर्श और अपने लिये कल्याण का एक सन्मार्ग बनाया ।
वर्णोजी-
कम से किया गया अभ्यास सफलता का था कि बड़े पण्डितजी कम से बढ़ते-बढ़ते सं० संसारिक विषम परिस्थितियों का गम्भीर अध्ययन करने के बाद उन्हें सभी से सम्बन्ध तोड़ने की प्रबल इच्छा हुई, और इसमें वे सफल भी हुए । यदि ममश्व था तो उन धर्म माता तक ही था, परन्तु सं० १९६३ में बाईजी, का स्वर्गवास हो जाने से वह भी छूट गया ।
परतन्त्रता तो सदा इन्हें खटकने वाली बात थी । एक बार सं० १९६३ में जब सागर से द्रोणगिरि जा रहे थे तब वण्डा में ड्राइवर ने इन्हें फ्रन्ट सीट का टिकट होने पर भी वह सीट दरोगा साहब को बैठने के लिये छोड़ देने को कहा । यह परतन्त्रता उन्हें सहय नहीं हुई, वहीं पर मोटर की
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साधक होता है यही कारण : १९७० में वर्णी हो गये ।
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