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टोकनी ढोना स्वीकार किया लेकिन वह भी न कर सके, इसलिये दिनभर की मजदूरी के न तीन आने मिल सके, न नौ पैसे ही नसीब हो सके । कृश शरीर, २० मील पैदल चलते, दो पैसे का बाजरे का आटा लेते, दाल देखने को भी न थी, केवल नमक को डली और दो घूँट पानी ही उन मोटी-मोटी रूखी-सूखी रोटियों के साथ मिलता था फिर भी लेकिन सन्तोस की श्वाँस लेते अपने पथ पर आगे बढ़े।
( ४ ) धर्मपत्नी के वियोग में दुनियाँ दुःखी और पागल हो जाती है, परन्तु भरी जवानी में भी इनकी धर्मपत्नी का ( सं० १६५३ में ) स्वर्गवास हो जाने से इन्हें जरा भी खेद नहीं हुआ ।
( ५ ) सामाजिक क्षेत्रों में भी लोगों ने इन पर अनेक आपत्तियाँ ढहकर इनकी परीक्षा की, परन्तु वे निश्चल रहे, अडिग रहे, कर्तव्य-पथ पर सदा दृढ़ रहे, विद्रोहियों को परास्त होना पड़ा ।
इनका सिद्धान्त है—“मूर्ति अगणित टाकियों से टाँके जाने पर पूज्य होती है, आपत्ति और जीवन सङ्घर्षो से टक्कर लेने पर ही मनुष्य महात्मा बनते हैं ।" इसलिये इन सब आपत्तियों और विरोध को अपना उन्नतिसाधक समझकर कभी क्षुब्ध नहीं हुए, सदा अपनी सहनशीलता का परिचय दिया ।
पं० गणेशप्रसादजी
कर्तव्यशील व्यक्ति कभी अपने जीवन में असफल नहीं होते, अनेक आपत्ति और कष्टों को सहन कर भी वे अपने लक्ष्य को सफल कर ही विश्रान्ति लेते हैं। माता की आज्ञा और शुभाशीर्वाद ने इन्हें दूसरे साथी का काम दिया । फलतः विद्योपार्जन के लिये सं० १६५२ से सं० १९८४ तक १–बम्बई, २- जयपुर, ३ –– मथुरा, ४ – खुरजा, ५ हरिपुर, ६—बनारस, —च कौती, ७---- - नवद्वीप, कलकत्ता तथा पुनः बनारस जाकर न्यायाचार्य परीक्षा उत्तीर्ण की। विशेषता यह रही कि सदा उत्तम श्रेणी में सर्वप्रथम ( First class first ) उत्तीर्ण हुए। और जहाँ
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