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( १९ ) नहीं तुम हमारे धर्म पुत्र हुए।" पुलकित बदन, हृदय नाच उठा, बचपन में माँ की गोदी का भूला हुआ वह स्वर्गीय सुख अनायास प्राप्त हो गया। एक दरिद्र को चिन्तामणि रत्न, निरुपाय को उपाय और असहाय को सहारा मिल गया। सहनशील गणेशीलाल___ बाईजी स्वयं शिक्षित थीं, मातृधर्म और कर्तव्य-पालन उन्हें याद था, अतः प्रेरणा की—“भैया ! जयपुर जाकर पढ़ा।" मातृ-आज्ञा शिरोधार्य की।
(१) जयपुर के लिये प्रस्थान किया. परन्तु जब जयपुर जाते समय लश्कर की धर्मशाला में सारा सामान चोरी चला गया, केवल पाँच पाने शेष रह गये तब छः आने में छतरी बेचकर एक-एक पैसे के चने चबाते हुए दिन काटते बरुणासागर आये। एक दिन रोटी बनाकर खाने का विचार किया, परन्तु वर्तन एक भी पास न था, अतः पत्थर पर से आटा गूंथा और कच्ची रोटी में भींगी दाल बन्दकर ऊपर से पलास के पत्ते लपेटकर उसे मध्यम आँच में तोपकर दाल तैयार की। तब कहीं भोजन पा सके, परन्तु अपने अशुभोदय पर उन्हें दुःख नहीं हुआ। अापत्तियों को उन्होंने अपनी परख-कसौटी समझा।
(२) खुरई जब पहुंचे तब पं० पन्नालालजी न्यायदिवाकर से पूछा"पं० जी ! धर्म का मर्म बताइये।" उन्होंने सहसा झिड़क कर कहा- "तुम क्या धर्म समझोगे, खाने और मौज उड़ाने को जैन हुए हो।” इस वचनवाण को भी इन्होंने हँसते-हँसते सहा। हृदय की इसी चोट को इन्होने भविष्य में अपने लक्ष्य-साधन ( विद्वद्रत्न वनने ) में प्रधान कारण बनाया।
(३) गिरनार के मार्ग पर बढ़े जा रहे थे, बुखार, तिजारी और खाज ने खबर ली। पास के पैसे खतम हो चुके थे, विवश होकर बैतूल की सड़क पर काम करनेवाले मजदूरों में सम्मिलित हुए, परन्तु एक टोकनी मिट्टी खोदी किं हाथों में छाले पड़ गये। मिट्टी खोदना छोड़कर मिट्टी की
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