________________
-वर्णी-वाणी
२३२
यदि कोई ऐसी आशङ्का करे कि मोक्ष तो प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं, फिर मनुष्य मोक्ष के उपायों में क्यों प्रवृत्ति करता है ? तो उसकी ऐसी आशङ्का करना ठीक नहीं, क्योंकि मोक्ष भले ही प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय न हो परन्तु अनुभव और आगम का विषय तो है ही । हम देखते हैं कि लोक में आशादि की निवृत्ति होने से हमें सुख होता है, तब जहां सब निवृत्ति हो गई हो वहां तो स्थायी सुख होगा ही । इस प्रकार इस अनुमान से मोक्ष सुख का ज्ञान हो जाता है और इसी से मोक्ष के उपायों में मुमुक्षुवर्ग की प्रवृति देखी जाती है। इसी तरह चतुर्गति के जीवों के दुःख तथा अतीत काल में हमको जो दुःख हुए उनका प्रत्यक्ष तो है नहीं, अतः उनके निवारण का प्रयत्न हम क्यों करें ? यह आशङ्का भी ठीक नहीं । अतीत काल के दुःखों की कथा छोड़ो, वर्तमान में जो दुःख हैं उन पर दृष्टिपात करो ।
सुख और दु:ख व उसके कारण -
नैयायिकों ने दुःख का लक्षण - “प्रतिकूल वेदनीयं दुःखम " माना है और जैनाचार्यों ने "आकुलता - एक तरह की व्यग्रता को दुःख" कहा है। आकुलता की उत्पत्ति में मूल कारण इच्छा है और इच्छा की उत्पत्ति क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद से होती है । अर्थात जब इस जीव के क्रोधकपाय की उत्पत्ति होती है तब इसके अनिष्ट करने, मारने और ताड़ने के भाव होते हैं, जब मान कषाय का आविर्भाव होता है तब पर को नीचा और अपने को ऊँचा दिखाने का भाव होता है । जब तक यह पर का अनिष्ट न कर ले या पर को ताड़नादि न कर ले तब तक इसे शान्ति नहीं मिलती । तत्त्वदृष्टि से विचार करने पर पर को
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org