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संसार
कष्ट पहुँचाने से कुछ नहीं मिलता, परन्तु जब तक ऐसा नहीं कर पाता तब तक उस कषाय की शान्ति नहीं होती। यही दुःख है। अथवा पर को नीचा दिखाना और अपने को उच्च मान लेना, इससे इसे कुछ लाभ नहीं। परन्तु जब तक ऐसा नहीं कर लेता तब तक इसे शान्ति नहीं। जिस काल में इसने अपनी इच्छा के अनुकूल ताड़नादि क्रिया कर ली या पर को नीचा दिखाने का प्रयत्न सिद्ध हो गया, उस काल में यह जीव अपने को शान्त मान लेता है, सुखी हो जाता है । यहां पर यह विचारणीय है कि जो सुख हुआ वह दूसरों को ताड़ने या नीचा दिखाने से नहीं हुआ, अपि तु ताड़ने या नीचा दिखाने की जो इच्छा थी वह शान्त हो गई, इसी से वह हुआ। इससे सिद्ध है कि इच्छा मात्र का सद्भाव दुःख का कारण है और इच्छा का अभाव सुख का कारण है।
दुःख का कारण मोह
मनुष्य पर्याय बहुमूल्यवान वस्तु है, इसे यों ही न खोना चाहिये । जिस समय हमारी आत्मा में असाता का उदय आता है उसी समय हम मोहवश दुःख का वेदन करते हैं। केवल असाता का उदय कुछ कार्यकारी नहीं, उसके साथ में यदि अरति आदि कषाय का उदय न हो तब असातोदय कुछ नहीं कर सकता। सुकुमाल स्वामी के तीव्र असातोदय में जन्मान्तर की वैरिणी स्यालिनी व उसके दो बालकों ने उनके शरीर को पञ्जों द्वारा विदारण कर तीन दिन तक रुधिर पान किया, परन्तु उनके अन्तरङ्ग में माह की कृशता होने से उपशमश्रेणी आरोहण कर वे सर्वार्थसिद्धि को गये। अतः दुःख-बेदन में मूलकारण मोहनीय कर्म का उदय है। यद्यपि कर्म जड़ हैं, वे
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