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संसार
स्वच्छन्द आनन्द को प्राप्त कर लेता है तब उसे अनुभव होता है, वह सहसा कह भी उठता है-"अब तो मैं स्वर्गीय सुख पा गया ।" धनिकों के ठाट-बाट को, सुख साधक सामग्रियों एवं भव्य-भवनों को देखकर लोग कहा करते हैं-"सेठ सा० को क्या चाहिये स्वर्गों जैसा सुख है।" यह लोक व्यवहार हमारे अनुमान में सहायता करता है कि वास्तव में स्वर्गों में ऐसी निर्द्वन्द्वता, स्वच्छन्दता और आनन्द होगा। ऐहिक सुखों से जहाँ तक सम्बन्ध है स्वर्गों का ठाट-बाट और स्वच्छन्द सुख के सम्बन्ध में अनुमान ठीक है परन्तु वास्तविक सुखों से-पारलौकिक सुखों से जहाँ सम्बन्ध है वहाँ आगम कहता है-"जिस देव पर्याय को तुम सुखों का खजाना समझते हो वह नुकीले घास पर ओस की बूंदों को मोती समझना है। भवनवासी व्यन्तेर और जोतिष्क जाति के देवों में निरन्तर परिणामों की निर्मलता भी नहीं रहती, यदि विमानवासी क्षुद्र देव हुआ तब महान पुण्यशाली देवों का वैभव देख संक्लशित रहता है। बड़ा देव हुआ तव निरन्तर सुख की सामग्री के भोगने में आकुलित रहता है। देवायु जब पूर्ण होती दिखती है तब उन सुखों को सामग्री को अपने से बिछुड़ता देख इतना संक्लशित होता है जिससे सद्गति का बन्ध न होकर पुनः उन निगोदादि दुर्गतियों का पात्र होता है। ___ इस प्रकार संसार में चारों गति दुःखमय हैं, कहीं भी सुख नहीं है। इन सभी दुःखों का हमें प्रत्यक्ष नहीं और जब तक किसी का प्रत्यक्ष अनुभव न हो तब तक उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति नहीं हो सकती, ऐसा नियम है। इष्ट को जानकर उसके उपाय में मनुष्यों की प्रवृत्ति होती है। इसी प्रकार अनिष्ट को जान कर उसके जो कारण हैं उनमें प्रवृत्ति नहीं करने की चेष्टा होती है।
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