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संसार
का पात्र होता है । उसके बाद असैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याय धारण कर मन के बिना विविध दुःखों का पात्र होता है । इसके बाद जब संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च होता है और उसमें भी यदि सिंहादि जैसा बलवान पशु होता है तब दूसरे निर्बल प्राणियों को सताता है और आप भी निदयी मनुष्यों के द्वारा शिकार किये जाने पर तड़प तड़प कर मरता है । तथा संक्लेश परणामों के कारण नरक गति का पात्र होता है। नरकगति
नरकों की वेदना अनुमान से किसी सेभी छिपी नहीं है। लोक में यह देखा जाता है कि जब किसी को असह्य वेदना होती है तब कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति को नरकों जैसी वेदना हो रही है। किसी स्थान के अधिक मैले-कुचले और दुर्गन्धित देखे जाने पर कहा जाता है कि ऐसे सुन्दर स्थान को नरक बना रखा है। ऐसा कहने का कारण यही है कि वहां की भूमि इतनी दुर्गन्धमय होती है कि यदि वहां का एक कण भी यहां आ जावे तो कोसों के जीवों के प्राण चले जावें । प्यास इतनी लगती है कि समुद्र भर का पानी पी जावे तो भी प्यास न बुझे। भूख इतनी लगती है कि तीनों लोकों का अनाज खा जावे तो भी भूख न जाय परन्तु न पीने को एक बूंद पानी मिलता है और न खाने को एक अन्न का दाना ! शीत और गर्मी का तो कहना ही क्या है ? गर्मी इतनी पड़ती है कि एक लाख मन का लोहे का गोला वहां की स्वाभाविक गर्मी से ही क्षणमात्र में पिघल कर पानी हो जाय और शीत इतनी पड़ती है कि वही पिघला हुआ लोहे का गोला शीत में पहुँचने पर पुनः गोला हो जाय । न वहाँ जज है न मजिस्ट्रेट, न पुलिस
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