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________________ वर्णी-वाणी २२६ की कथा छोड़िये वह तो परलोक व आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं मानता । फिर भी जिस प्रत्यक्ष को मानता है उसमें वह भी स्वीकार करता है कि मनुष्य की सहायता करनी चाहिये क्यों कि यदि हम ऐसा न करेंगे तो जब हमारे ऊपर कोई आपत्ति आवेगी तब हमारी सहायता कोई अन्य व्यक्ति कैसे करेगा ? अतः यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि संसार विपत्तिमय है । वे विपत्तियां अनेक हैं और अनेकविध हैं । परन्तु जिसको दुःख बताया है वह भिन्न भिन्न पर्यायों को अपेक्षासे ही बताया है जिसका हमें अनुभव नहीं परन्तु आगम अनुमान और प्रत्यक्ष ज्ञान से हम उसे जानते हैं । आगम में प्राणियों की चार गतियां बतलाई हैं १ तिर्यग्गति, २ नरकगति,३ मनुष्यगति और ४ देवगति । जीवों को अपने शुभाशुभ परिणामों के अनुसार इन चारों गतियों में अनेक बार जन्म मरण के असह्य दुःखों को सहन करना पड़ता है। जैसेतिर्यग्गति जब यह जीव निगोद में रहता है तब एक स्वांस में अठारह बार जन्म मरण करता है । उस समय इसके एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है । स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और स्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं। तीन लोक में घी के घड़े की तरह निगोद भरा हुआ है इस तरह अनन्तकाल तो इसका निगोद में ही जाता है । उसके दुखों को वही जान सकता है । उसके बाद पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि अनेक पर्यायों में जीव जन्म मरण कर जीवन व्यतीत करता है। उसके बाद द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय सम्बन्धी क्रमसे लट, पिपीलिका अलि आदि अनेक भव धारण कर आयु को व्यतीत कर अनेक दुःखों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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