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संसार
जो परिणाम आत्माको एक जन्म से दूसरा जन्म प्राप्त करावे उसी का नाम संसार है। संसार का मूल कारण मिथ्यादर्शन अर्थात् अनात्मीय पदार्थों में आत्मीय भाव है, जिसके प्रभाव से यह आत्मा अनन्त संसार का पात्र होता है । यद्यपि जीव मूर्त है और पुद्गल द्रव्य मूर्त है फिर भी अपनी अपनी योग्यतावश दोनों का अनादि सम्बन्ध है । परन्तु यहांपर जीवका पुद्गल के साथ जो सम्बन्ध है वह विजातीय दो द्रव्यों का सम्बन्ध है, श्रतः दोनों द्रव्य मिलकर एक रूपता को प्रान नहीं होते अपि अपने अपने अस्तित्व को रखते हुए बन्ध को प्राप्त होते हैं । यद्यपि दो परमाणुओंका बन्ध होने पर उनमें एक रूप परिणमन हो जाता है इसमें विरोध नहीं । उदाहरणार्थ सुधा और हरिद्रा मिलकर एक लाल रंग रूप परिणमन हो जाता है, क्योंकि दोनों पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं। यह सजातीय द्रव्यों के बन्ध की व्यवस्था है किन्तु विजातीय दो द्रव्य मिलकर एक रूपता को प्राप्त नहीं होते । उदाहरणार्थं जीव और पुद्गल इन दोनों का बन्ध होने पर ये एकक्षेत्रावगाही हो जाते हैं किन्तु एकरूप नहीं होते । जीव अपने विभावरूप हो जाता है और पुद्गल अपने विभावरूप हो जाता है ।
संसार दुःखमय हैं यह प्रायः सभी को मान्य है । चार्वाक
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