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वर्णी-वाणी
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है न पंचायत, न शासक हैं न शासित, जो कुछ हैं सब नारको जीव ही हैं इसलिये कुत्तों की तरह केवल परस्पर में लड़ना, राक्षसों की तरह मारपीट करना और दानवों की तरह एक दूसरे के तिल तिल बराबर टुकड़े कर डालना यही उनका दिन रातका काम है। परन्तु मृत्यु ? उनके शरीर के तिल तिल बराबर टुकड़े टुकड़े हो जाने पर भी मृत्यु नहीं होती अपितु टुकड़े टुकड़े इकट्ठे होकर वे पुनः उठ खड़े होते हैं। मृत्यु तभी होती है जब नरकायु पूर्ण हो जाती है। इन अनेक वेदनाओं को सहने के बाद कभी जब सौभाग्य होता है तब मनुष्य पर्याय प्राप्त होती है ! मनुष्यगति
यह प्रत्यक्ष है कि मनुष्यगति सभी गतियों से अच्छी है, परन्तु सच्चा सुख जिसे कहना चाहिये वह यहाँ भी प्रान नहीं होता है। माता के गर्भ में पिता के वीर्य और माता के रज से शरीर की उत्पत्ति होती है । गर्भ में नौ मास तक किस प्रकार के कितने कितने कष्ट उठाने पड़ते हैं, इसका पूर्ण अनुभव उसी समय वही जीव कर सकता है जो गर्भाशय में रहता है। बाल्य अवस्था के दुःख कुछ कम नहीं हैं। माता-पिता भले ही अपनी शक्तिभर उसे लाड़-प्यार करें, परन्तु उसके भी दुःखों का अन्त नहीं होता । पलने में पड़ा-पड़ा भूख-प्यास या शरीर जन्य वेदनाओं से तिलमिला उठता है, रोता और चिल्लाता है, रोने के सिवा और कोई उपाय नहीं। वह तो इसलिये रो रहा है-- "माँ ! मुझे दूध पिला दे” परन्तु माँ उसे पलना झुला देती है और गाती है-“सो जा वारे वीर !” और जब बालक सोना चाहता है तब माँ उसे दूध पिलाना चाहती है, कैसी आपत्ति
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