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सुधासीकर
पर निज सत्ता रक्खे। जो वस्तु में निजत्व मानते हैं वे ही इस संसार के पात्र हैं, और नाना प्रकार की वेदनाओं के भी पात्र होते हैं । तथा अन्य जीवों को भी संसार के पात्र बनाते हैं।
चैत्र शु. १ वी. २४६९ १०८. जिसने अपनी प्रभुता को नहीं सम्भाला वह संसार में दीन होकर रहता है, घर घर का भिखारी होता है। अपनी शक्ति के आधार से ही अपनी सत्ता है उसका दुरुपयोग करना अपना घात करना है । अनन्त बल का धारी आत्मा भी पराधीन होकर दुर्गति का पात्र बनता है पराधीनता किसी भी हालत में सुबकारी नहीं इसके वशीभूत होकर यह जीव नाना गतियों में नाना दुर्गति का पात्र है।
चैत्र शु. १५ वी. २४६९ १०९. अपने आप अपनी सहायता करा, पर की प्राशा करना कायरों की प्रकृति है ! पर के सहाय से सदा दोन बनना पड़ता है, और दीनता ही संसार को जननी है।
वैशाख्न कृ. ५ वी. २४६९ ११०. जो स्वच्छ मनमें आवे उसे कहने में सङ्कोच मत करो, २. किसी से राग द्वेष मत करो; ३. राग द्वेष के भावेग में
आकर अन्यथा प्रलाप मत करो, यही आत्मा के सुधार की मुख्य शिक्षा है।
भषाढ़ शु. १२ वी. २४६९ १११. संसार की दशा जो है वही रहेगी, इसको देख कर उपेक्षा करना चाहिये । केवल स्वात्मगुण और दोषों को देखो और उन्हें देखकर गुण को ग्रहण करो और दोषों को त्यागो।
श्रावण कृ. १ वी. २४६९
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