SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्णी-वाली २२२ दान जो करेगा सो अपनी आत्मा के हित की दृष्टि से करेगा, हम उसके गुणगान करें सो क्यों ? गुणगान से यह तात्पर्य है कि आप उसे प्रसन्न कर अपनी प्रशंसा चाहते हो । इसका यह अर्थ नहीं कि किसी की निन्दा करो उदासीन बनो । माघ शु. ८ वी २४६९ १०४. इस दुःखमय संसार में जीवन सबको प्रिय है इसके अर्थ ही प्राणी नाना प्रकार के यत्न करता है, सर्वस्व देकर जीवन की रक्षा चाहता है । इसके अर्थ हो ज्ञान का अर्जन, तप का करना और परिग्रह का त्याग आदि अनेक कारणों को मिलाता है और स्वीय जीवन को शान्तिमय बनाने का यत्न करता है। सर्वत्याग अन्तरंग लाभ के बिना निरर्थक है । यह माघ शु. १२ वी. २४६९ १०५. जिसने आत्मा की सरलता की ओर लक्ष्य दिया वह स्वयमेव अनेक द्वन्द्व से बच गया, परकी संगति से आत्मा की परिणति अति कुटिल और कलुषित हो जाती है । इसका उड़ाहरण देखो सोना चाँदी के संग से अपनी महत्ता खो देता है । फाल्गुण शु. १ वी, २४६९ १०६. प्राय प्रत्येक मनुष्य यह चाहता है कि हमारा कल्याण हो । यह तो सर्वसम्मत है, परन्तु इसमें उस जीव का जो यह अभिमान है कि जो हमारे मुख से निकल गया । वही ब्रह्मवाक्य है, कल्याण का घातक विष है । इसी से अभीष्ट को चाहने पर जीव अभीष्ट से दूर रहता है । वास्तव में जो निरभिमान पूर्वक प्रवृत्ति होगी वह आत्मकल्याण की जननी है । चैत्र कृ. २ वी. २४६९ १०७. मनुष्य वही प्रशस्त और उत्तम है जो आत्मीय वस्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy