________________
२२१
सुधासीकर
है । कर्मफल चेतना का कारण कर्मचेतना है जब तक कर्मचेतना का सम्बन्ध न छूटेगा इस कठिन ही नहीं असम्भव है ।
संसार चक्र से सुलझाना
माघ कृ. १२ वी. २४६९
१००. जिसने रागद्वेष को नहीं त्यागा वह व्यर्थ ही लोगों की वंचना करने के अर्थ बाह्य तपस्वी बना हुआ है । और अन्य की दृष्टि भी उसे तपस्वी रूप में देखती है परन्तु उससे पूँछो तो बह यही कहता है कि मै दम्भी हूँ, केवल अन्य लोग मुझे मिथ्या श्रद्धा से तपस्वी समझ रहे हैं, वे सब बुद्धि से हीन हैं !
माघ कृ. १४ वी. २४३९
१०१. जो कुछ करना है उसे अच्छे विचारों से करो । संसार की दशा पर विचार करने से यह स्थिर होता है कि यहाँ पर कोई भी कार्य स्थिर नहीं, तब किसी भी कार्य को करने की चेष्टा मत करो, केवल कैवल्य होने का प्रयास करो ।
माघ शु. २ वी, २४६९ १०२. संसार को प्रसन्न बनाने की चेष्टा ही संसार की माता हैं ।
माघ शु. ३ वी. २४६९ १०३. यदि आत्मा को अव्यग्र रखने की अभिलाषा है
तब
१ - पर पदार्थों के साथ सम्पर्क न करो ( २ ) किसी से व्यर्थ पत्रव्यवहार न करो ( ३ ) और न किसी से व्यर्थ बात करो ( ४ ) मन्दिर जी में एकाकी जाओ (५) किसी दानी की मर्यादा से अधिक प्रशंसा कर चारण बनने की चेष्टा मत करो,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org