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________________ वर्णी-वाणी २२. पात्र नहीं होते । संकोच में आकर जो मानव आत्मा के अन्तरङ्ग भाव को व्यक्त करने से भय करते हैं वे अन्त में निन्दा के पात्र होते हैं। यथार्थ कहने में भय करना वस्तु स्वरूप की मर्यादा का लोप करना है । जो मनुष्य संसार को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं वे अपनी आत्मा को अकल्याण के गर्भ में पात करते हैं। मानव जन्म उसी का सफल है जो आत्मा को अपना जाने । पौष कृ. १४ वी. २४९९ ६७, किसी की परोक्ष में निन्दा करना उसके सम्मुख कहने की अपेक्षा महान् पापास्रव का कारण है । पर की निन्दा करने से आत्मप्रशंसा की अभिलाषा का अनुमान होता है अथवा पर के द्वारा पराई निन्दा श्रवण कर सम्मत होना यह भाव भी अत्यन्त पापास्रव का जनक है। पौष शु. २ वी. २४५९ ६८. आत्मा जब तक अपनी प्रवृत्ति को स्वच्छ नहीं बनाता तभी तक वह अनेक दुःखों का पात्र होता है, क्योंकि मलिनता ही आत्मा को पर वस्तुओं में निजत्व को कल्पना कराती है । पौष शु. १० वी. २४६९ ६६. "किसी को मत सताओ” यही परम कल्याण का मार्ग है। इसका यह तात्पर्य है कि जो पर को कष्ट देने का भाव है वह आत्मा का विभाव भाव है, उसके होते ही आत्मा विकृत अवस्था को प्राप्त हो जाता है और विकृत भाव के होते ही आत्मा स्वरूप से च्युत हो जाता है। स्वरूप से च्युत होते ही अात्मा नाना गतियों का आश्रय लेता है और वहाँ नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करता है, इसी का नाम कर्मफल चेतना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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