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वर्णी-वाणी
११२. वह कार्य करो जो आत्मा को उत्तरकाल और वर्तमान में भी सुखकर हो । जिस कार्य के करने में सङ्कोच की प्रचुरता हो वह कार्य कदापि उत्तरकाल में हितकर नहीं हो सकता । ऐसे भाव कदापि न करो जिनके द्वारा आत्मा का अधःपात हो, अधःपात का कारण असक्त प्रवृत्ति है । जब मनुष्य अधम काम करने में आत्मीय भावों को लगा देता है तब उसकी गणना मनुष्यों में न होकर पशुओं में होने लगती है। अतः जिन्हें पशु सदृश प्रवृत्ति कर मनुष्य जाति का गौरव मिला है-वे मनुष्य स्वेच्छाचारी होकर संसार में इतस्ततः पशुवत् व्यवहार भले ही करें पर उनसे मनुष्य जाति का उपकार नहीं हो सकता।
भाद्रपद कृ. ५ वी. २४६९ ११३. जो मनुष्य संसार को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं वे अपने आत्मा को संसारगर्त में डालने का प्रयत्न करते हैं और जो अपनी परिणिति को स्वच्छ बनाने का उपाय करते हैं वे ही सच्चे शूर हैं। संसार में अन्य पर विजय पाने में उतना लश नहीं जितना आत्म विजय करने में क्लेश है।
आत्मा की विजय वही कर सकता है जो अपने मन को पर से रोककर स्थिर करता है।
कार्तिक कृ. ३० वी. २४६९ ११४. विशुद्धता ही मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है । उसके बिना हमारा जीवन किसी काम का नहीं । जिसने उसको त्यागा वह संसार से पार न हुए, उन्हें यहीं पर भ्रमण करने का अवसर मिलता रहेगा!
कार्तिक शु. १५ वी. २४७०
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