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________________ सुधासीकर ७६. जितने पाप संसार में हैं उन सब की उत्पत्ति का मूल कारण मानसिक विकार है । जब तक वह शमन न होगा सुख का अंश भी न होगा। माघ शु. ७ वी. २४६७ __७७. आपको आपरूप देखना ही शुद्धि का कारण है। माघ शु. ८ वी. २४६७ ७८. आयु की अनित्यता जानकर विरक्त होना कोई विरक्तता नहीं किन्तु वस्तु स्वरूप जानकर अपने स्वरूप में रम जाना ही विरक्तता है। माघ शु. ९ वी. २४६७ ७६. धन का मद विलक्षण मद है जो मनुष्य को बिना पिये ही पागल बना देता है। चैत्र कृ. १ वी. २४६७ ८०. व्रत करने में अन्तरङ्ग निर्मलता और निरीहता की आवश्यकता है, दुबलता उतनी बाधक नहीं। क्योंकि निबल से निर्बल मनुष्य परिणामों की निर्मलता से मोक्षमार्ग के पात्र बन जाते हैं जब कि निर्मलता के अभाव में सबल से सबल भी मनुष्य संसार के पात्र बने रहते हैं। अषाढ़ कृ. ८ वी. २४६७ ८१. संक्लेश परिणाम आत्मा में दुःख का कारण और परिपाक में पाप का कारण है। श्रावण कृ. ९ वी. २४६७ २. अपने पर दया करोगे तभी अन्य पर दया कर सकंगे। श्रावण कृ. १३ वी. २४६७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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