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वर्णी-वाणी
८३. वही विचार प्रशस्त होते हैं जो आत्महित के पोषक हों ।
श्रावण शु. २ वी. २४६७
८४. जो संसार समुद्र से पार लगा देते हैं वे ही परमार्थत: गुरु हैं, और वे ही मोक्षमार्ग में उपकारी हैं ।
श्रावण शु. ८ ची २४६७ ८५. हितमित असंदिग्ध वचन ही प्रशस्त होते हैं अतः जो मनुष्य बहुत बोलता है वह आत्मज्ञान से पराङ्मुख हो जाता है ।
अश्विन कृ. ११ वी २४६७
८६. नियम का उलंघन करना आत्मघात का प्रथम चिन्ह है ।
अश्विन कृ० १४ वी, २४६७ ८७. आत्महित के सम्मुख होना ही पर हित की चेष्टा है । प्रथम ज्येष्ठ कृ. ९ वी. २४६०
८८.
व्रत वह है जो दम्भ से विमुक्त है । जहाँ दम्भ है वहाँ व्रत नहीं ।
८६.
२१८
६०.
वल वही उत्तम है जो दोनों की रक्षा करे ।
द्वितीय ज्येष्ठ क. : वी. २४६८ कृ.
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द्वि. ज्येष्ठ कृ. ६ वी. २४६८
बात वही अच्छी है जो स्वपर हित साधक हो । द्वि. ज्येष्ठ शु. २ वी. २४६८
६१. कोई किसी का नहीं है । जैसे एक रुपया में हो
२ अठन्नियाँ, ४ चवन्नियाँ, ८ दुअन्नियाँ, १६ एकन्नियाँ, ३२ टके,
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६४ पैसे, १२८ घेले, १२ पाई आदि भाग होते हैं फिर भी ये एक
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