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वर्णी-वाणी
नशा
३५. संयम की रक्षा परम धर्म है ।
पौष
कृ. ३ वी. २४६४ ३६. यदि संसार यातनाओं का भय है तब जिन निमित्तों और उपादान द्वारा वे उत्पन्न होती हैं उनमें स्निग्धता को छोड़ो । पौष शु. ९ वी. २४६४ बनाने के लिये वे वचन
३७. विचारधारा को निर्मल बोलो जो लक्ष्य के अनुकूल हों ।
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माघ क. १ वी, २४६४
३८. वही जीव प्रशस्त और उत्तम है जो पर के सम्पर्क से अपने को अन्यथा और अनन्यथा नहीं मानता ।
माघ कृ. २ वी. २४६४ ३६. सुख का कारण संक्लेश परिणाम का अभाव है । माघ शु. ६ वी. २४६४ ४०. जहाँ तक देखा गया श्रात्मा स्वकीय उत्कर्ष की ओर ही जाता है । कोई भी व्यक्ति स्वकीय उच्चता का पतन नहीं चाहता, अतः सिद्ध हुआ कि आत्मा का स्वभाव उच्चतम है । इसलिये जो नीचता की ओर जाता है वह आत्म स्वभाव से च्युत है ।
माघ शु. ११ वी. २४६४ ४१. . स्वरूप सम्बोधन ही कार्यकारी और आत्मकल्याण की कुञ्जी है। इसके बिना मनुष्य जन्म निरर्थक है ।
फाल्गुन कृ. ७ वी. २४६४ ४२. लोगों की प्रशंसा स्वात्म साधन में मोही जीब को बाधक और ज्ञानी जीव को साधक है ।
फाल्गुन कृ. ११ वी. २४६४
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